हमें
अन्तर्राष्ट्रीय बनाता अनुवाद
अनुवाद एक संस्कृति से
दूसरी संस्कृति से पहचान कराने और आपस में जोड़ने का काम करता है। भारत जैसे
विविध भाषायी राष्ट्र में अनुवादक ही सम्पूर्ण संस्कृति को एक धागे में पिरोए
हुए है। यह भारत की भावात्मक संस्कृति को एक सूत्र में बॉंधता है। अनुवाद-कर्म
राष्ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्कृतियों, राज्यों, देशों
एवं विचारधाराओं के बीच सेतु का काम करता है। यदि अनुवादक को समन्वयक, मध्यस्थ,
संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। कविवर बच्चन
जी ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। उनके शब्दों
में ''अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी
बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए---।'' (साहित्यानुवाद:
संवाद और संवेदना) भाषा के आविष्कार के बाद जब मनुष्य-समाज का विकास-विस्तार
होता चला गया और सम्पर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्यकता
अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने जन्म लिया। प्रारम्भ में अनुवाद की परंपरा निश्चित
रूप से मौखिक ही रही होगी।
साहित्यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्व
मिला। दरअसल, अनुवाद के शलाका-पुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्होंने देशाटन के
निमित्त विभिन्न देशों की यात्राएँ कीं और जहां-जहां वे गये, वहां-वहां की
भाषाएं सीखकर उन्होंने वहां के श्रेष्ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद
किया। चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री ने 25
वर्षों तक भारत में रहकर संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र
आदि का अध्ययन किया और अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार कीं। चीन लौटकर उसने
इनमें से कई ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया। कहा जाता है कि चीन में अनुवाद
कार्य को राज्य द्वारा प्रश्रय दिया जाता था तथा पूर्ण धार्मिक विधि-विधान के साथ
अनुवाद किया जाता था। संस्कृत के चीनी अनुवाद जापान में छठी-सातवीं शताब्दी में
पहुंचे और जापानी में भी उनका अनुवाद हुआ। प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई
मंजिलें तय की हैं। यह सच है कि आधुनिककाल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह
अभूतपूर्व है। मगर, यह भी उतना ही सत्य है कि अनुवाद की आवयश्कता हर युग में, हर
काल में तथा हर स्थान पर अनुभव की जाती रही है। विश्व में द्रुतगति से हो रहे
विज्ञान और तकनॉलजी तथा साहित्य, धर्म-दर्शन, अर्थशास्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों
में विकास ने अनुवाद की आवश्यकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है। आज देश के सामने
यह प्रश्न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषाओं वाले इस देश की साहित्यक-सांस्कृतिक
धरोहर को कैसे अक्षुण्ण रखा जाए ? देशवासी एक-दूसरे के निकट
आकर आपसी मेलजोल और भाई-चारे की भावनाओं को कैसे आत्मसात् करें ? वर्तमान परिस्थितियों में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि
देशवासियों के बीच सांजस्य और सद्भाव की भावनाएँ विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष
विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एवं सौहार्दता के दर्शन कर अनकेता
में एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें। भाषायी सद्भावना इस दिशा में
एक महती भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बने,
वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुडें और उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान का संकल्प
दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र है। इस पुनीत एवं महान् कार्य
के लिए संपर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह
भाषा है जो संपूर्ण देश को एकसूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को
साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द के शब्दों में, "हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।" यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही भाषायी
सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए? कारण स्पष्ट है। हिन्दी आज एक बहुत
बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की
तुलना में सर्वाधिक है। विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में इसका दूसरा स्थान है।
इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एवं लोकप्रियता की दृष्टि से भी
वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार
बढ़ता जा रहा है। अतः देश की भाषायी सद्भावना एवं एकात्मकता के लिए हिन्दी भाषा के
बहुमूल्य महत्त्व को हमें स्वीकार करना होगा।
भाषायी सद्भावना की जब
हम बात करत हैं तो अनुवाद की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह
साधन है जो भाषायी सद्भावना की अवधारणा को न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय
साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम है। यह
एक ऐसा वन्दनीय कार्य है जो भारतीय साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है
तथा हमें सच्चे अर्थों में भारतीय बना क्षेत्रीय संकीर्णताओं एवं परिसीमाओं से ऊपर
उठाकर 'भारतीयता' से
साक्षात्कार कराता है। देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के दर्शन अनुवाद से ही
संभव हैं। आज यदि सुब्रमण्यम भारती, महाश्र्वेता देवी, उमाशंकर जोशी, टैगोर आदि
भारतीय भाषाओं के इन यशस्वी लेखकों की रचनाएँ अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुंचती,
तो भारतीय साहित्य संबंधी हमारा ज्ञान कितना सीमित, कितना क्षुद्र होता, इसका सहज
ही अनुमान लगाया जा सकता है।
विविधताओं से युक्त
भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक
धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है।
अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि,
तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर
साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ० जी० गोपीनाथन लिखते हैं- 'भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है।
भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने
के लिए अनुवाद ही एकमात्र साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने
वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते
हैं।
आने वाली शताब्दी
अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और संप्रेषण के नये-नये माध्यमों व
आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नए क्षितिज उद्धाटित होंगे। इस सारी प्रक्रिया
में अनुवाद की महती भूमिका होगी। इससे "वसुधैव
कुटुम्बकम्" की उपनिषदीय अवधारणा
साकार होगी। इस दृष्टि से संप्रेषण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं
अनुवाद की भूमिका निर्निवाद रूप से अति महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।
"ये मेरे खुशनुमा इरादों, मेरी देखभाल करना।
मेरा
किसी से नहीं, खुद से मुकाबला है।। "