Friday, 25 November 2016

कविता - गरीबी

गरीबी
सो जाते हैं वो फुटपाथ पर,
गरीबों को दुशाले नहीं मिलते।
          समाज की इस दुर्दशा में भी,
          कई पेशेवर अपनी रोटियॉं सेकते।
बहलाते-फुसलाते काम के वास्‍ते,
गरीब की मज़बूरियों को लूटते।
          अमीरी की आड़ लेकर कई,
          जवॉं जिस्‍मों से नित खेलते।
भले बुरे हैं कुछ बेखबर उन्‍हें,
सदबुद्धि मिले जो इसे पोसते।
          विषमता के वास्‍ते जब ये लड़े,
          पर अमीरी की धार से वे काटते।
बेरोजगारी से तंग आकर कई,
रेल की पटरी से कट मर जाते।
          भूख से बिलखते हुए बच्‍चे कई,
          दाने की तलाश में परलोक जाते।
हाय! इस देश के भविष्‍य को,
देख लिया ऑंखों से भीख मांगते।
          'सुबोध' ये असहज सी खांईयॉं,

          अभी अरसों दिखती नहीं पटते।

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