संस्कृत न राजा के लिए
बोधगम्य था, न
प्रजा के लिए व्यवहार्य लेकिन इसकी महिमा अपरंपार बनी हुई रही! हजारों पुश्त तक
भारतवर्ष के सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात इसकी सेवा में लगे रहे! यद्यपि, ईसा की एक सहस्राब्दी बाद
विचार में ही नहीं आचार में भी और भाषा के क्षेत्र में भी लोक की ओर उसका झुकाव हो
गया था तथापि उसके लगभग एक हजार वर्ष बाद अर्थात आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के
समय में भी सर्वोत्तम मस्तिष्क संस्कृत की सेवा में लगे हुए थे! अपनी उल्लेखनीय ‘चिंता पारतंत्र्य’ के बावजूद! असल में आचार्यों
के दिमाग में यह बात सदैव जमी रही है कि संस्कृत में कम करनेवाला दिमाग ही
सर्वोत्तम होता है। कुछ लोगों की कुछ-कुछ ऐसी ही धारणा आज अँगरेजी के बारे में है
कि उत्तम मस्तिष्क अँगरेजी में ही काम कर सकता है, जनभाषाओं में उत्तम मस्तिष्क के लिए सम्मानजनक जगह ही कहाँ
होती है! भगवान बन जाने के बाद बुद्ध का मुख, मुख नहीं रह गया होगा--- मुखारविंद हो गया होगा! भगवान के
मुख से पालि का उच्चारण संदेह से परे तो हो ही नहीं सकता है! इसलिए, यह संदेह पांडित्योचित ही है
कि उस युग की लोकभाषा कही जानेवाली पालि सचमुच ही बुद्धदेव के मुख से उच्चारित
भाषा थी या नहीं। हालाँकि संतुलन बनाये रखने की विवशता थी इसलिए इतना तो पंडितों
को स्वीकार ही पड़ा कि संस्कृत भाषा को इस युग में पहली बार एक प्रतिद्वंद्वी भाषा
का सामना करना पड़ा था। लोक के आचार-विचार और भाषा के प्रति झुकाव को स्वाभाविक
मानना और फिर यह कहना कि प्रियदर्शी महराज अशोक ने दृढ़ता के साथ लोकभाषा को
प्रचारित करना चाहा था। जिस लोक भाषा की ओर स्वाभाविक झुकाव था, उस लोकभाषा को भी दृढ़ता से
प्रचार के लिए प्रियदर्शी महराज अशोक जैसे सम्राट की जरूरत थी! वह साहित्य पंडितों
के लिए स्वीकार्य प्रमाण कभी हो ही नहीं सकता जो यह कहता हो कि बुद्धदेव ने न
सिर्फ लोकभाषा में उपदेश दिया था बल्कि निश्चित रूप से अपनी वाणी को संस्कृत में
रूपांतरित किये जाने का निश्चित निषेघ भी किया था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के
शब्दों में, ‘इस
भाषा (संसकृत) में साहित्य की रचना कम-से-कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही
है। इसके लक्षाधिक ग्रंथों के पठन-पाठन और चिंतन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक
के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। मैं
नहीं जानता कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करनेवाली कोई भाषा है या
नहीं। शायद नहीं है। फिर भी भाषा की समस्या इस देश में कभी उठी ही नहीं हो, सो बात नहीं है। भगवान बुद्ध
और भगवान महावीर ने संस्कृत के एकाधिपत्य को अस्वीकार किया था, उन्होंने लोकभाषा को आश्रय
करके अपने उपदेश प्रचार किये थे। ऐसा जान पड़ता है कि संस्कृत भाषा को इस युग में
पहली बार एक प्रतिद्वंद्वी भाषा का सामना करना पड़ा था। जहाँ तक बौद्ध धर्म का
संबंध है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा
सकता है कि उस युग की लोकभाषा कही जानेवाली पालि सचमुच ही बुद्धदेव के मुख से
उच्चारित भाषा थी या नहीं। प्रियदर्शी महराज अशोक ने दृढ़ता के साथ लोकभाषा को
प्रचारित करना चाहा था। इसका सबूत हमारे पास है और सीलोन तथा वर्मा आदि में
प्राप्त पालि भाषा का बौद्ध साहित्य भी हमें बताता है कि बुद्धदेव ने सिर्फ इस लोकभाषा
में उपदेश ही नहीं दिया था बल्कि निश्चित रूप से अपनी वाणी को संस्कृत में रूपांतर
करने का निषेघ भी किया था। यह साहित्य स्थविरवादियों का है जो कई बौद्ध संप्रदायों
में से एक है। आधुनिक काल में बौद्ध साहित्य की जब चर्चा शुरू हुई थी तब इन पालि
ग्रंथों को एक मात्र प्रमाण मान लिया गया था। और उस समय जो कुछ कहा गया था वह अब
भी संस्कार रूप से बहुत से सुसंस्कृत जनों के मन पर रह गया है। परंतु सही बात यह
है कि स्थविरवादियों का यह साहित्य विशाल बौद्ध साहित्य का एक अत्यंत अल्प
अंशमात्र है। न तो वह एक मात्र बौद्ध साहित्य है, और न सर्वाधिक प्रामाणिक साहित्य ही है, न यही जोर देकर कहा जा सकता
है कि यही सबसे अधिक पुराना साहित्य है। ..... बहुत पुराने काल में हीनयान और
महायान दोनों ही प्रधान बौद्ध शाखाओं के ग्रंथ संस्कृत अर्द्ध-संस्कृत में लिखे
जाने लगे थे। आज इनमें का अधिकांश खो गया है। ... इस प्रकार यद्यपि एक संप्रदाय की
गवाही पर हम पालि को संस्कृत की प्रतिद्वंद्वी भाषा के रूप में पाते हैं, तथापि बहुत शीघ्र ही संस्कृत
ने उस प्रतिक्रिया पर विजय प्राप्त कर ली थी। ... शुरू-शुरू में मुसलमान बादशाह भी
इस भाषा की महिमा हृदयंगम कर सके थे। पठानों के सिक्कों से नागरी अक्षरों का ही
नहीं, संस्कृत भाषा का भी अस्तित्व
सिद्ध किया जा सकता है। परंतु बाद में जमाने ने पलटा खाया और अदालतों और राजकार्य
की भाषा फारसी हो गयी। इस देश के बड़े समुदाय ने नाना कारणों से मुसलमानी धर्म का
वरण किया और फलत: एक बहुत बड़े समुदाय की धर्मभाषा अरबी हो गयी। यह अवस्था अधिक से
अधिक पाँच सौ वर्षों तक रही है। परंतु आप भूल न जाएँ कि इस समय भी भारतवर्ष की
श्रेष्ठ चिंता का स्रोत संस्कृत के रास्ते ही बह रहा था। ... इस युग में यद्यपि
संस्कृत ग्रंथों में से मौलिक चिंता बराबर घटती जा रही थी फिर भी वह एकदम लुप्त
नहीं हो गयी थी। .... अर्थात हमारे छह सात हजार वर्ष के विशाल इतिहास में अधिक से
अधिक पाँच सौ वर्ष ऐसे रहे हैं जिनमें अदालतों की भाषा संस्कृत न होकर एक विदेशी
भाषा रही है। दुर्भाग्यवश इस सीमित काल और सीमित अंश में व्यवहृत भाषा का दावा आज
हमारी भाषा समस्या का सर्वाधिक जबर्दस्त रोड़ा साबित हो रहा है। ....इस विशाल देश
की भाषा समस्या का हल आज से सहस्रों वर्षों पूर्व से लेकर अब तक जिस भाषा के जरिये
हुआ है उसके सामने कोई भी भाषा न्यायपूर्वक अपना दावा लेकर उपस्थित नहीं रह सकती---
फिर वह स्वदेशी हो या विदेशी, इस
धर्म के माननेवालों की हो या उस धर्म के। इतिहास साक्षी है कि संस्कृत इस देश की
अद्वितीय महिमाशालिनी भाषा है--- अविजित, अनाहत और दुर्द्धर्ष।’5
पंडितों ने सिर्फ बुद्ध को ही
भगवान नहीं बनाया बल्कि बुद्धवाणी को भी वेद बनाना चाहा--- संस्कृत में ढालकर।
बार-बार यह बात महसूस की जाती रही है कि इस क्रम में बुद्ध तो बहुत हद तक भगवान
विष्णु बना दिये गये, लेकिन
बौद्धों को किसी न्यूनतम हद तक भी वैष्णव नहीं माना गया! अद्भुत बौद्धिक विचक्षणता
का उदाहरण है यह कहना कि शंकराचार्य के तत्त्ववाद की पृष्ठ-भूमि में बौद्ध
तत्त्ववाद अपना रूप बदलकर रह गया। असल बात तो यही हो सकती है कि शंकराचार्य ने
बौद्ध तत्त्ववाद को बौद्धिक रूप से आच्छादित कर लिया। किसी भी ब्राह्मण-विरोधी
विचार को ‘देश की अद्वितीय
महिमाशालिनी--- अविजित, अनाहत
और दुर्द्धष’--- भाषा संस्कृत में ढालकर उनके
ब्राह्मणीकरण के बाद सामाजिक परिस्थिति के अनुकूलन में उपयोग करने, संरक्षित कर लेने की प्रविधि
पंडितों के लिए बहुत कारगर रही है। असल में ‘देश की अद्वितीय महिमाशालिनी, अविजित, अनाहत
और दुर्द्धष’ भाषा
को न राजा समझता था न प्रजा--- शास्त्रों में निहित विचारों की मनमानी व्याख्या के
लिए यह भाषा धोखे की ऐसी टट्टी बनाती थी जिसमें हर प्रभुत्व-संपन्न को अपना हित
सुरक्षित दिखता था! बुद्ध को इस खतरनाक ‘पंडित प्रविधि’ के चाल-चरित का ज्ञान जरूर रहा होगा तभी उन्होंने संस्कृत
में अनुवाद का निषेध किया होगा। इस तरह, ‘बौद्ध धर्म का इस देश से जो निर्वासन हुआ उसके प्रधान कारण
शंकर, कुमारिल और उदयन आदि वैदांतिक
और मीमांसक आचार्य माने जाते हैं।’ यह कैसा मंतव्य है कि धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में
अभूतपूर्व क्रांति बौद्ध-धर्म के उद्भव के कारण उत्पन्न नहीं हुई! आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं, ‘असल
में बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की पुन:स्थापना से भारत की धार्मिक तथा
राजनीतिक परिस्थितियों में अभूतपूर्व क्रांति उत्पन्न हो गयी।’ यह क्रांति, नहीं अभूतपूर्व क्रांति
बौद्ध-धर्म के उद्भव से नहीं बौद्ध-धर्म के उच्छेद और ब्राह्मण-धर्म की
पुन:स्थापना से हुई! इसी तरह के ‘निश्च्छल
आत्म-विश्वास’ के साथ
ब्राह्मण-धर्म की विशेषता को भारतवर्ष के साहित्य की एक निश्चित विशेषता के रूप
में स्थापित करने की भी कोशिश की गई है! आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्थापना
है, ‘सारे संसार की अपेक्षा
भारतवर्ष के साहित्य की एक निश्चित विशेषता है और विशेषता का कारण एक भारतीय
विश्वास है। यह है पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धांत। प्रत्येक पुरुष को अपने किये
का फल भोगना ही पड़ेगा। ... पुनर्जन्म का सिद्धांत वैसे तो खोजने पर अन्यान्य देशों
में भी किसी न किसी रूप में मिल जा सकता है, परंतु कर्मफल-प्राप्ति का सिद्धांत कहीं भी नहीं मिलता।’6 तो जो
विचार और साहित्य इस ‘पुनर्जन्म
और कर्मफल सिद्धांत’ को
नहीं माने उसे भारतीय मानने में ही झिझक स्वाभाविक है! यह है ऐतिहासिक विवेक और
आलोचना दृष्टि!