“निबंधकार : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी”
नाम :
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सुबोध कुमार सिंह, भाषाविज्ञान विभाग लखनऊ
विश्वविद्यालय, लखनऊ
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संपर्क नं.
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8762300617
एवं 8971914701
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आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय मनीषा के प्रतीक और साहित्य एवं संस्कृति के अप्रतिम
व्याख्याकार माने जाते हैं और उनकी मूल निष्ठा भारत की पुरानी संस्कृति में है
लेकिन उनकी रचनाओं में आधुनिकता के साथ भी आश्चर्यजनक सामंजस्य पाया जाता है ।
आचार्य द्विवेदी को उनके निबंधों के लिए विशेष ख्याति मिली । निबंधों में
विषयानुसार शैली का प्रयोग करने में इन्हें अद्भुत क्षमता प्राप्त है । तत्सम
शब्दों के साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्दों का सार्थक प्रयोग इनकी शैली का प्रमुख
गुण रहा है । भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य,
ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है जिसकी
झलक इनके निबंधों में मिलती है । छोटी-छोटी चीजों, विषयों का
सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन और विश्लेषण-विवेचन उनकी निबंधकला का विशिष्ट व मौलिक गुण
है । उनके निबंध दार्शनिक तत्व प्रधान एवं सामाजिक
जीवन से संबंध रखते हैं । द्विवेदी जी के इन निबंधों में विचारों की गहनता, निरीक्षण की नवीनता और विश्लेषण
की सूक्ष्मता रहती है ।
आचार्य द्विवेदी जी आधुनिक हिंदी साहित्य के
बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी हैं । उनके समस्त निबंध साहित्य का चिंतन और सृजन
मानव केंद्रीत ही रहा है । उन्हें हिंदी साहित्य में अद्यतन युग का सर्वश्रेष्ठ
निबंधकार माना जाता है । उनके विविध विषयी निबंधों में युगीन विचारधाराओं का सफलता
पूर्वक समावेश हुआ है । इसलिए वे बार-बार कहते हैं कि “मनुष्य ही साहित्य का
लक्ष्य है जिस कृति से यह उद्देश्य सिद्ध नहीं होता, वह वाग्जाल है ।”1 जीवन की
गतिविधियों, क्रिया-कलापों और अनुभवों को उन्होंने अपने निबंधों के अंतर्गत बहुत
ही सरल रूप में अपनाया है । निबंध पाठक को यह समझने में कोई आश्चर्य नहीं होता कि
निबंधों में प्रतिभा, विद्वता एवं पाण्डित्य का अदभुत समावेश है । हिंदी का अन्य
कोई भी निबंधकार इस बात की बराबरी नहीं कर सका है जितना द्विवेदी जी ने अपने
निबंधों के माध्यम से पाठक पर प्रभाव डाला है । द्विवेदी जी ने आत्मदान को
महत्त्वपूर्ण बताया है और इसका पालन भी किया है । इसी आत्मदान की याद में डॉ.
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी लिखते हैं- “क्या उन्होंने प्रचीन
काव्य, दर्शन, ज्योतिष और संस्कृत के श्रेष्ठ साहित्य के अपने गहन अध्ययन को
निचोड़कर नहीं दे दिया है ? मेरे ख्याल से तो हिंदी
साहित्य को यही उनकी सबसे बड़ी देन है जिसे आधुनिक काल का दूसरा साहित्यकार नहीं
दे सकता था ।”2 विचारात्मक एवं ललित
निबंध की एक बड़ी कड़ी के रूप में जुड़ने के बाद उन्होंने दोनों कोटि के निबंध
लेखन को समृद्ध कर पूर्णता की चरम सीमा तक पहुंचाया । लालित्य एवं विचार दोनों में
द्विवेदी जी की गति अबाध एवं अनन्य है । दोनों को समान रूप से लेकर चलने वाले वे इकलौते
निबंधकार हैं । द्विवेदी जी के निबंधों में “भारतीय संस्कृति की
जीवन्त परंपरा विद्यमान है । आपके निबंध भारतीय जन-जीवन की मनोरम झाँकी प्रस्तुत
करते हैं ।”3
जीवन और जगत के संबंध
में द्विवेदी जी की अवधारणा एवं विचारधारा उनके सभी निबंधों में पाई जाती है । संक्षेप
में द्विवेदी जी के चिंतन को लोकधर्मी चिंतन कहा जाना सर्वथा औचित्यपूर्ण लगता है
। सामांजस्य उत्पन्न करने के लिए कुशलता और प्रतिभा की आवश्यकता होती है । सभी
चित्रकारों के पास अनेक रंग होते हैं, किंतु कुशल शिल्पी ही जानता है कि किसका किस
स्थान पर उपयोग करने से चित्र सुंदर लगेगा । इसीलिए द्विवेदी जी अपने निबंधों में
एक कुशन शिल्पी की भाँति शब्दों का प्रयोग करते हैं- “मनुष्य में ही बहुत सी
आदिम मनोवृतियाँ हैं, जो जरा-सा सहारा पाते ही झनझना उठती हैं ।”4
द्विवेदी जी के सारे निबंध चिंतन के केंद्र में
मनुष्य है । उनकी दृष्टि में मानव समाज को सुन्दर बनाने की साधना ही ‘साहित्य’ है । उनके
निबंध इस कसौटी पर पूरे ही नहीं उतरते अपितु इस संबंध में आदर्श रूप भी स्थापित
करते हैं । निबंधों में समूचे मानव मूल्यों को स्थान एवं प्रवेश देने का प्रयास
किया गया है । अपने निबंध साहित्य में उन्होंने प्राचीनकाल के अप्रासंगिक एवं
निरर्थक हो चुके मूल्यों पर जोर दिया है । विचार एवं व्यक्तित्व का जैसा सहभाव
द्विवेदी जी के निबंध लेखन में दृष्टिगोचर होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । मस्ती
और फक्कड़पन अनेक निबंधों में मिलता ही है चाहे निबंध का विषय जो भी हो । विरोधी
विचारधाराओं का समावेश उनके चिंतन और लेखन की विशेषता है- “आदर्शवाद के
धरातल पर विरोधी विचारधाराओं, परम्परा तथा प्रयोग, संस्कृति तथा सभ्यता, समाज तथा
व्यक्ति, धर्म तथा विज्ञान, मानववाद तथा मानवतावाद, गाँधी तथा मार्क्स, प्राचीन
तथा नवीन जीवन बोध में सामांजस्य एवं समन्वय स्थापित कर रखा है ।”5
द्विवेदी जी ने विविध
विषयों, विचारों पर विभिन्न कोणों, शैलियों से लिख कर हिंदी निबंध-विधा को समृद्ध
एवं पुष्ट और परिपक्व किया है । द्विवेदी जी के निबंधों में भारतीय संस्कृति के
प्रति अनन्य स्नेह और संपृक्ति दिखाई देती है । उनके निबंध भारतीय संस्कृति के पर्याय
हैं । इनमें मानव प्रेम, देश प्रेम, अध्यात्मिकता, उदारता, समर्पण-भावना,
कर्तव्य-भावना, मानसिक संयम, असीम श्रद्धा और अगाध विश्वास आदि तत्व विद्यमान हैं
। इनका कदाचित ही ऐसा कोई निबंध हो जिसके केंद्र में भारतीय संस्कृति एवं मानव की
बात न करते हों- “मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह दु:ख-सुख को
सहानुभूति के साथ देखता है । यह आत्म निर्मित्त बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है
। अहिंसा, सत्य और अक्रोधमूलक धर्म का मूल उत्स यही है ।”6 यद्यपि
द्विवेदी जी के मनोविज्ञान को लेकर कहीं बात नहीं की गई है, पर मनोभावों की सूक्ष्म
पकड़ होने के कारण उनके निबंध मनोविज्ञान के प्रभाव से युक्त लगते हैं । समीक्षक
श्यामनंद किशोर इस संबंध में लिखते हैं- “साहित्य सृष्ठा द्विवेदी
जी के मनोविश्लेषण के लिए उनका निबंध साहित्य अत्यधिक उपयुक्त है । प्रसंग गर्भत्व
द्विवेदी जी के निबंधों को वृहतर आयाम प्रदान करता है । प्राचीन काल के अनेक
प्रसंग और श्लोक, अर्वाचीन साहित्य के अनेक विवरण उनके निबंधों को सांस्कृतिक
गरिमा प्रदान करते हैं । वे किसी सीधे-साधे शब्द या वाक्य को इतने निश्छल ढंग से
निबंध में प्रयुक्त करते हैं कि उससे अर्थवत्ता नि:सृत हो जाती है ।
चिरपरिचित शब्दों के अछूते प्रयोग द्विवेदी जी की लोक-संस्कृति से भिन्न है ।”7 द्विवेदी जी
की मनोवैज्ञानिक सी सूक्ष्म दृष्टि, विषय-विवेचन, भाषा, शैली सभी अदभुत और विलक्षण
है । अपनी सहज आत्मीयता एवं विनोद-प्रियता के कारण पाठकों से उनका संवाद शीघ्र ही
स्थापित हो जाता है । वक्तृव्य प्रधान शैली के कारण निबंधों में कथात्मकता,
रक्षात्मकता और रोचकता की वृद्धि होती है । उनके निबंध सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक
संदर्भ ज्ञान की असंख्य आलोक किरणों से सहज ही बौद्धिक दीप्ति प्रदान करते हैं ।
द्विवेदी जी ललित निबंध
के प्रवर्तक माने जाते हैं । ललित निबंध निबंधकला की दृष्टि से श्रेष्ठतम हैं ।
इनमें भावनात्मकता एवं अनुभूति की त्रिवेणी प्रवाहित होती रहती है, जो गहन संवेदना
से परिपूर्ण है । इसमें भावुकता एवं सह्रदयता का ज्वार-भाटा सा उठ पड़ता है ।
पाण्डित्य से युक्त गवेषणात्मक निबंध लेखन के अलावा उन्होंने ललित निबंध लेखन में
भी विलक्षण कौशल प्रदर्शित किया है । ललित निबंध की कोटि में प्राचीन एवं अर्वाचीन
विषयों पर विभिन्न निबंध लिखे हैं । इनमें भारतीय धर्म, संस्कृति और साहित्य आदि
को निरुपित किया गया है । ‘अशोक के फूल’, ‘शिरीष के फूल’, ‘कुटज’, ‘मेरी जन्म
भूमि’, ‘क्या आपने मेरी रचना
पढ़ी’, ‘आम फिर बौरा गए’, ‘बसंत आ गया’, ‘नाखून क्यों
बढ़ते है?’ आदि इसी कोटि के निबंध हैं । इन
निबंधों में छोटी सी बात को लेकर द्विवेदी जी उनके संबंध में आदि से अंत का वर्णन
बहुत ही सहजता एवं मधुरता से करते हैं । डॉ. अर्जुन देव शर्मा के शब्दों में- “आम फिर बौरा
गए, शीर्षक मात्र से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों इन आम बौरों की शोभा से लेखक
आत्मविभोर की स्थिति गृहण कर अपने शब्दों में उच्छवासित कर रहा है ।”8
आचार्य द्विवेदी जी ने
हिंदी निबंध साहित्य को व्यापक तथा समृद्ध बनाने का महान कार्य किया है । इनके
निबंधों की एक विशेषता उनके व्यंग्य का नुकीलापन है जो इतना सूक्ष्म और सौम्य है
कि चुभते हुए कष्ट भी नहीं देता । यह डॉक्टर के इंजेक्शन की भांति बारीक से बारीक
सुई है । ‘संस्कृत और साहित्य’ नामक निबंध
में वे कहते हैं- “नई शिक्षा के परिचय से विश्वास भी ढीला
होता जाता है । कम से कम शहरों में बसी जनता उनके अर्थहीन आचार-विचार के जंजालों
से नहीं दबी है, जितने उनके ग्रामीण पूर्वज थे ।”9 डॉ. प्रभाकर
माचवे उनके निबंधों की दोनों विशेषताओं सहजता एवं व्यंग्य की ओर विशेष ध्यान
आकर्षित करते हुए इन शब्दों में संकेत करते हैं- “निबंध की शैली में वही
सहजता है जैसे गपशप कर रहे हैं, बात-बार में बात निकली जा रही है । कभी कोई पुरानी
स्मृति का टुकड़ा उज्ज्वल हो रहा है, कोई एक दम अनूठी एक नयी उद्भावना सामने आ रही
है तथा उनके निबंधों में चुहल है, व्यंग्य है, करारी सामाजिक आलोचना है,
वाग-वैदग्ध्य है, संस्मरणों का सिलसिलेवार काफिला है । सद्चित रत्नाकर और सुभाषित
रत्न भण्डागार के असंख्य उद्धरण मणि हैं ।”10 आपके निबंधों
के बारे में डॉ. बच्चन सिंह का कथन है- “उनके निबंध न तो गंभीरता
का तेवर छोड़ते हैं और न सहजता का बाना ।”11
द्विवेदी जी ने साहित्य
को लेकर सर्वाधिक निबंध लिखे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति के प्रति उनका जो प्रेम है
वह अटूट है । उनका शायद ही ऐसा कोई निबंध हो जो संस्कृति प्रेम की अभिव्यक्ति से
अछूता हो । इसलिए मनुष्य और संस्कृति उनके जहन में हमेशा बनी रही है । संस्कृति की
झलक उनके ‘भारतीय संस्कृति की देन’ नामक निबंध
में देखी जा सकती है- “भारतवर्ष ने ऐशिया और
यूरोप के देशों को अपनी धर्म-साधना की उत्तम वस्तुएँ दान की हैं। उसने अहिंसा और
मैत्री का संदेश दिया है । क्षुद्र-दुनियावी स्वार्थों की उपेक्षा करके विशाल
आध्यात्मिक अनुभूतियों का उपदेश दिया है ।”12 भारतीय
संस्कृति और इसकी समृद्ध परंपरा यहाँ की मिट्टी के कण-कण में विद्यमान है । इसका
बहुत बड़ा अंश दुनिया के और देशों में पहुंचा है- “मेरे गाँव में जो
जातियाँ बसी हैं, वे किसी उजड़े महल या गाड़ी हुई ईंटों से कम महत्त्वपूर्ण तो हैं
ही नहीं, अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । मेरे इस छोटे से गाँव में भारतवर्ष का बहुत बड़ा
सास्कृतिक इतिहास पढ़ा जा सकता है ।”13 आप अपने
निबंधों में संस्कृत साहित्य का गंभीर अध्ययन प्रस्तुत करते हैं, भारतीय संस्कृति
का उज्ज्वल रूप सामने लेते हैं । शिष्ट साहित्य की गरिमा प्रस्तुत करते हैं । लोक
साहित्य एवं संस्कृति का प्रतिपादन करते हैं- “जिस मनुष्य का चित्त
निर्मल ऐर शुद्ध होता है उसका निर्णय उत्तम होता है । उसी को हम सुसंस्कृत मनुष्य
कहते हैं ।”14
निबंधों में प्रयुक्त
भाषा और विविधता से युक्त शैली भी आपके लेखन की विशेषता है । भाषा के अंतर्गत
भारतीय भाषाओं एवं बोलियों के अतिरिक्त संस्कृत एसं विदेशी भाषाओं का भी प्रयोग
प्रभावशाली ढंग से किया गया है- “परन्तु वे स्वभाव से फक्कड़
थे । अच्छा हो या बुरा, खरा हो या खोटा जिससे एक बार चिपट गए
उससे जिंदगी भर चिपटे रहे ।”15 यहाँ भारतीय
बोली के शब्दों का प्रयोग किया गया है। “सब अपने मतलब के लिए
प्रिय होते हैं – आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रिंय भवति !”16 इसमें
संस्कृत शब्दावली परिलक्षित हो रही है । “इस समस्या का नाम है ‘नेशनैलिटी’ । इसको
हिंदी में नाम दिया गया है ‘राष्ट्रीयता’ ।”17 विदेशी भाषा
अंग्रेजी के शब्द का प्रयोग हुआ है । अपनी भाषा में द्विवेदी जी ने विभिन्न भाषाओं
के शब्दों को बड़ी ही सुंदरता से पिरोते हैं । विषय और भाषागत विशेषता के साथ-साथ
शैली में भी विविधता दृष्टिगोचर होती है क्योंकि आप भावों के अनुसार शैली परिवर्तन
कला में भी सिद्धहस्त हैं- “आपकी रचना पद्धति में भी
विविधता के दर्शन होते हैं, क्योंकि कहीं तो आपने वार्तामूलक पद्धति अपनायी है,
कहीं व्याख्यामूलक पद्धति का प्रयोग किया है, कहीं चिंतन मनन-मूलक पद्धति का उपयोग
किया है कहीं व्यंग्यपूर्ण खण्डन-मण्डन पद्धति काम में ली है ।”18
आचार्य द्विवेदी जी ने
निबंधों की रचना उन तथ्यों एवं विचारों के आधार पर की है जिन्हें इन्होंने स्वंय
अनुभव किया है, सेचा समझा है तथा जिसका संबंध निजी देश, समाज, जीवन, संस्कृति एवं
साहित्य से न होकर संपूर्ण विश्व के मानव जीवन से एवं मानवता से है । निबंधों की
भाषा में तत्सम, तदभव, अर्द्धतत्सम और देशज शब्द प्रमुख रूप से प्रयुक्त हुए हैं- “द्विवेदी जी
तो माहौल बनाकर पाठक को आत्मीयता और खुलेपन के साथ विश्वास में लेते हैं उनसे
बातचीत करते हुए उसे अपनी भावभूमि पर बहला ले जाते हैं और फिर जो कहना होता है कह
जाते हैं ।”19 आलोचक द्विवेदी जी को
भाषा का उपासक मानते हैं और यह उचित भी है क्योंकि भाषा उनके साथ सहयोग करती है ।
आपकी भाषा की संक्षेप में एक विशेषता कही जाए तो वह यह कि आपकी भाषा नीर-क्षीर
विवेक परमहंस भाषा है । विषय, भाषा, शैली, चिंतन और अनुभूति सभी दृष्टियों से
आचार्य जी का निबंध साहित्य उनके समकालीन एवं पूर्ववर्ती निबंध लेखकों के लिए
अनुकरणीय तथा प्रेरणा प्रदान करने का समृद्ध भण्डार है- “इन निबंधों में आशा,
विश्वास, राग-विराग, धारणा, मान्यता, कल्पना-अनुभूति, आदर्श, यथार्थ, विलास-विनोद,
कला, विद्या आदि की अभिव्यक्ति अत्यन्त गहनता, तीव्रता एवं सजगता के साथ हुई है ।”20
निबंधकार के रूप में
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की संपूर्ण मूल्यांकन करना शायद संभव नहीं है
क्योंकि उनके निबंध विभिन्न विषयों से ओत-प्रोत हैं । अपनी मानवतावादी दृष्टि,
भावों-विचारों, अभिव्यक्ति, शैली आदि के कारण उनके निबंध हिंदी निबंध साहित्य की
गौरवपूर्ण निधि हैं । द्विवेदी जी ने जिस कोटि के कलात्मक निबंध लिखे हैं, उनसे
प्राप्त होने वाली प्रेरणा को काल की सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता है । इनके
निबंधों में कोरी मनोरंजकता अथवा कलात्मकता ही नहीं है अपितु शक्ति और सांस्कृतिक
मूल्यों का समावेश भी है । हिंदी साहित्य में लेखक आचार्य द्विवेदी जी के निबंध
साहित्य से सदा प्रेरणा और प्रवाह ग्रहण करते रहेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
संदर्भ-सूची
1. हजारी प्रसाद
द्विवेदी ग्रंथावली- भाग-10, राजकमल प्रकाशन-1981, पृष्ठ-19
2. हजारी प्रसाद
द्विवेदी (भारतीय साहित्य के निर्माता) – विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृष्ठ-80
3. हिंदी के प्रतिनिधि
निबंधकार – डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, पृष्ठ-254
4. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है-
पृष्ठ-75
5. हजारी प्रसाद
द्विवेदी, संपादक- विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लेखक- इंद्रनाथ मदान, पृष्ठ-28
6. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-संकलित निबंध, संपादक- नामवर सिंह, नाखून क्यों बढ़ते है?, पृष्ठ-37
7. हजारी प्रसाद
द्विवेदी, संपादक- विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लेखक- श्यामनंद किशोर, पृष्ठ-51
8. आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी की साहित्य-सर्जना, लेखक- विध्नवासिनी नंदन पाण्डेय, पृष्ठ-91
9. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक- निर्मला जैन, संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ-43
10. आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी की साहित्य-सर्जना, लेखक- विध्नवासिनी नंदन पाण्डेय, पृष्ठ-97
11. उपरिवृत, पृष्ठ-97
12. हजारी प्रसाद
द्विवेदी ग्रंथावली, भाग-9, संपादक-मुकुंद द्विवेदी, भारतीय संस्कृति की देन,
पृष्ठ-207
13. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-संकलित निबंध, संपादक- नामवर सिंह, मेरी जन्मभूमि, पृष्ठ-72
14. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, भारतीय संस्कृति का स्वरूप-
पृष्ठ-75
15. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-संकलित निबंध, संपादक- नामवर सिंह, कबीर एक विलक्षण व्यक्तित्व,
पृष्ठ-101
16. उपरिवृत, कुटज,
पृष्ठ-14
17. हजारी प्रसाद
द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक- निर्मला जैन, संस्कृति और साहित्य, पृष्ठ-41
18. हिंदी के प्रतिनिधि
निबंधकार – डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, पृष्ठ-250
19. हजारी प्रसाद
द्विवेदी, संपादक- विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लेखक- राजेंद्र प्रसाद पाण्डेय,
पृष्ठ-189
20. हिंदी के प्रतिनिधि
निबंधकार – डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, पृष्ठ-225

(सुबोध कुमार सिंह)