Friday, 25 November 2016

आलेख - हमें अन्‍तर्राष्‍ट्रीय बनाता अनुवाद

हमें अन्‍तर्राष्‍ट्रीय बनाता अनुवाद
     
      अनुवाद एक संस्‍कृति से दूसरी संस्‍कृति से पहचान कराने और आपस में जोड़ने का काम करता है। भारत जैसे विविध भाषायी राष्‍ट्र में अनुवादक ही सम्‍पूर्ण संस्‍कृति को एक धागे में पिरोए हुए है। यह भारत की भावात्‍मक संस्‍कृति को एक सूत्र में बॉंधता है। अनुवाद-कर्म राष्‍ट्रसेवा का कर्म है। यह अनुवादक ही है जो दो संस्‍कृतियों, राज्‍यों, देशों एवं विचारधाराओं के बीच सेतु का काम करता है। यदि अनुवादक को समन्‍वयक, मध्‍यस्‍थ, संवाहक, भाषायी-दूत आदि की संज्ञा दी जाए तो कोई अत्‍युक्‍ति न होगी। कविवर बच्‍चन जी ने ठीक ही कहा है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच मैत्री का पुल है। उनके शब्‍दों में ''अनुवाद एक भाषा का दूसरी भाषा की ओर बढ़ाया गया मैत्री का हाथ है। वह जितनी बार और जितनी दिशाओं में बढ़ाया जा सके, बढ़ाया जाना चाहिए---।'' (साहित्‍यानुवाद: संवाद और संवेदना) भाषा के आविष्‍कार के बाद जब मनुष्‍य-समाज का विकास-विस्‍तार होता चला गया और सम्‍पर्कों एवं आदान-प्रदान की प्रक्रिया को अधिक फैलाने की आवश्‍यकता अनुभव की जाने लगी, तो अनुवाद ने जन्‍म लिया। प्रारम्‍भ में अनुवाद की परंपरा निश्‍चित रूप से मौखिक ही रही होगी।
साहित्‍यिक-गतिविधि के रूप में अनुवाद को बहुत बाद में महत्‍व मिला। दरअसल, अनुवाद के शलाका-पुरुष वे यात्री रहे हैं, जिन्‍होंने देशाटन के निमित्‍त विभिन्‍न देशों की यात्राएँ कीं और जहां-जहां वे गये, वहां-वहां की भाषाएं सीखकर उन्‍होंने वहां के श्रेष्‍ठ ग्रंथों का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया। चौथी शताब्‍दी के उत्‍तरार्द्ध में फाहियान नामक एक चीनी यात्री ने 25 वर्षों तक भारत में रहकर संस्‍कृत भाषा, व्‍याकरण, साहित्‍य, इतिहास, दर्शनशास्‍त्र आदि का अध्‍ययन किया और अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियां तैयार कीं। चीन लौटकर उसने इनमें से कई ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया। कहा जाता है कि चीन में अनुवाद कार्य को राज्य द्वारा प्रश्रय दिया जाता था तथा पूर्ण धार्मिक विधि-विधान के साथ अनुवाद किया जाता था। संस्‍कृत के चीनी अनुवाद जापान में छठी-सातवीं शताब्‍दी में पहुंचे और जापानी में भी उनका अनुवाद हुआ। प्राचीनकाल से लेकर अब तक अनुवाद ने कई मंजिलें तय की हैं। यह सच है कि आधुनिककाल में अनुवाद को जो गति मिली है, वह अभूतपूर्व है। मगर, यह भी उतना ही सत्‍य है कि अनुवाद की आवयश्‍कता हर युग में, हर काल में तथा हर स्‍थान पर अनुभव की जाती रही है। विश्‍व में द्रुतगति से हो रहे विज्ञान और तकनॉलजी तथा साहित्‍य, धर्म-दर्शन, अर्थशास्‍त्र आदि ज्ञान-विज्ञानों में विकास ने अनुवाद की आवश्‍यकता को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है। आज देश के सामने यह प्रश्‍न चुनौती बनकर खड़ा है कि बहुभाषाओं वाले इस देश की साहित्‍यक-सांस्‍कृतिक धरोहर को कैसे अक्षुण्‍ण रखा जाए ? देशवासी एक-दूसरे के निकट आकर आपसी मेलजोल और भाई-चारे की भावनाओं को कैसे आत्‍मसात् करें ? वर्तमान परिस्‍थितियों में यह और भी आवश्‍यक हो जाता है कि देशवासियों के बीच सांजस्‍य और सद्भाव की भावनाएँ विकसित हों ताकि प्रत्यक्ष विविधता के होते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक समानता एवं सौहार्दता के दर्शन कर अनकेता में एकता की संकल्पना को मूर्त्त रूप प्रदान कर सकें। भाषायी सद्भावना इस दिशा में एक महती भूमिका अदा कर सकती है। सभी भारतीय भाषाओं के बीच सद्भावना का माहौल बने, वे एक-दूसरे से भावनात्मक स्तर पर जुडें और उनमें पारस्परिक आदान-प्रदान का संकल्प दृढ़तर हो, यही भारत की भाषायी सद्भावना का मूलमंत्र है। इस पुनीत एवं महान् कार्य के लिए संपर्क भाषा हिन्दी के विशेष योगदान को हमें स्वीकार करना होगा। यही वह भाषा है जो संपूर्ण देश को एकसूत्र में जोड़कर राष्ट्रीय एकता के पवित्र लक्ष्य को साकार कर सकती है। स्वामी दयानन्द के शब्दों में, "हिन्दी के द्वारा ही सारे भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है।" यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हिन्दी को ही भाषायी सद्भावना की संवाहिका क्यों स्वीकार किया जाए? कारण स्पष्ट है। हिन्दी आज एक बहुत बड़े भू-भाग की भाषा है। इसके बोलने वालों की संख्या अन्य भारतीय भाषा-भाषियों की तुलना में सर्वाधिक है। विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में इसका दूसरा स्थान है। इसके अलावा अभिव्यक्ति, रचना-कौशल, सरलता-सुगमता एवं लोकप्रियता की दृष्टि से भी वह एक प्रभावशाली भाषा के रूप में उभर चुकी है और उत्तरोत्तर उसका प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। अतः देश की भाषायी सद्भावना एवं एकात्मकता के लिए हिन्दी भाषा के बहुमूल्य महत्त्व को हमें स्वीकार करना होगा।
     भाषायी सद्भावना की जब हम बात करत हैं तो अनुवाद की तरफ हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। दरअसल, अनुवाद वह साधन है जो भाषायी सद्भावना की अवधारणा को न केवल पुष्ट करता है अपितु भारतीय साहित्य एवं अस्मिता को गति प्रदान करने वाला एक सशक्त और आधारभूत माध्यम है। यह एक ऐसा वन्दनीय कार्य है जो भारतीय साहित्य की अवधारणा से हमें परिचित कराता है तथा हमें सच्चे अर्थों में भारतीय बना क्षेत्रीय संकीर्णताओं एवं परिसीमाओं से ऊपर उठाकर 'भारतीयता' से साक्षात्कार कराता है। देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के दर्शन अनुवाद से ही संभव हैं। आज यदि सुब्रमण्‍यम भारती, महाश्र्वेता देवी, उमाशंकर जोशी, टैगोर आदि भारतीय भाषाओं के इन यशस्वी लेखकों की रचनाएँ अनुवाद के ज़रिए हम तक नहीं पहुंचती, तो भारतीय साहित्य संबंधी हमारा ज्ञान कितना सीमित, कितना क्षुद्र होता, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
     विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ० जी० गोपीनाथन लिखते हैं- 'भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने के लिए अनुवाद ही एकमात्र साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को ढहाकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।
     आने वाली शताब्दी अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति की शताब्दी होगी और संप्रेषण के नये-नये माध्यमों व आविष्कारों से वैश्वीकरण के नित्य नए क्षितिज उद्धाटित होंगे। इस सारी प्रक्रिया में अनुवाद की महती भूमिका होगी। इससे "वसुधैव कुटुम्बकम्" की उपनिषदीय अवधारणा साकार होगी। इस दृष्टि से संप्रेषण-व्यापार के उन्नायक के रूप में अनुवादक एवं अनुवाद की भूमिका निर्निवाद रूप से अति महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।
                   "ये मेरे खुशनुमा इरादों, मेरी देखभाल करना।
                    मेरा किसी से नहीं, खुद से मुकाबला है।। "




कविता - गरीबी

गरीबी
सो जाते हैं वो फुटपाथ पर,
गरीबों को दुशाले नहीं मिलते।
          समाज की इस दुर्दशा में भी,
          कई पेशेवर अपनी रोटियॉं सेकते।
बहलाते-फुसलाते काम के वास्‍ते,
गरीब की मज़बूरियों को लूटते।
          अमीरी की आड़ लेकर कई,
          जवॉं जिस्‍मों से नित खेलते।
भले बुरे हैं कुछ बेखबर उन्‍हें,
सदबुद्धि मिले जो इसे पोसते।
          विषमता के वास्‍ते जब ये लड़े,
          पर अमीरी की धार से वे काटते।
बेरोजगारी से तंग आकर कई,
रेल की पटरी से कट मर जाते।
          भूख से बिलखते हुए बच्‍चे कई,
          दाने की तलाश में परलोक जाते।
हाय! इस देश के भविष्‍य को,
देख लिया ऑंखों से भीख मांगते।
          'सुबोध' ये असहज सी खांईयॉं,

          अभी अरसों दिखती नहीं पटते।

Thursday, 24 November 2016

ऑनलाइन परिवर्तन पत्रिका में प्रकाशित, आलेख



आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध साहित्य में मानवीयता
नाम:
डॉ. सुबोध कुमार सिंह, भाषाविज्ञान विभाग                              लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
शोध-विषय
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन
वर्तमान पता :
मकान सं.- सी-48, ब्लॉक-4
आयकर कलोनी, एच.एम.टी. वॉच फैक्टरी के निकट, जालहल्ली, बेंगलूरु, कर्नाटक 560019
ई-मेल      :
संपर्क नं.    :
8762300617 एवं 8971914701

शोध संक्षेप
मूर्धन्य साहित्यकार ऑचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिंदी के सर्वाधिक सशक्त निबंधकार माने जाते हैं। उनके निबंध मानव के लिए मानदण्ड स्वीकार गए हैं। निबंध वह विधा है, जहाँ रचनाकार बिना किसी आड़ के पाठक से बातचीत करता है और इस क्रम में वह पाठक के सामने खुलता चला जाता है। उनके निबंधों का प्रमुख बिंदु मनुष्य ही रहा है । वे पक्षपात से रहित हमेशा शोषित और पीड़ित के पक्ष में खड़े रहने वाले महान साहित्यकार हैं । मनुष्य की मानवीयता के विस्तार को ही उन्होंने अपने साहित्य सृजन में सदा ही सर्पोपरि माना है । उनका निबंध साहित्य मानव की चित्तवृति को शुद्ध रूप प्रदान करता है । यहाँ पर उनके निबंध साहित्य में मानवीयता की तलाश का प्रयास किया गया है ।
प्रस्तावना
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी महान हिंदी उपन्यासकार, प्रसिद्ध साहित्यिक इतिहासकार, निबंधकार, शोधकर्ता, उत्कृष्ट लेखक, विद्वान, आधुनिक काल के आलोचक होने के साथ-साथ हिंदी से इतर कई अन्य भाषाओं के विद्वान थे । आचार्य जी का जन्म 19 अगस्त 1907 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक ग्राम आतर दूबे-का-छपरा में हुआ था । इनके पिता अनमोल द्विवेदी संस्कृत के विद्वान पंड़ित थे । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके गाँव के स्कूल में हुई थी । ज्योतिष शास्त्र में अपने आचार्य की डिग्री के साथ ही संस्कृत में शास्त्री की डिग्री को पास करने के लिए, उन्हें ज्योतिष और संस्कृत के पारंपरिक स्कूल में पढ़ना पड़ा । इन्होंने विभिन्न तरह के उपन्यास और बहुत से निबंध लिखे हैं । साहित्य और मानव के प्रति उनके विचार बहुत ही स्पष्ट हैं उनका मानना है कि मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ । जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को उत्तेजित न कर सके, जो उसके ह्दय को परदुःखकातर औप संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है ।1
ऑचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी निबंध साहित्य के ज्योति स्तंभों में से एक महान निबंधकार हैं । उन्होंने साहित्य में अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी के प्रभाव से हिंदी साहित्य जगत को गौरवान्वित किया है । उनके विचारों में संशय अथवा अस्पष्टता का सर्वथा अभाव देखा जाता है । वे लोक-मंगल को अपना ध्येय बनाकर चलने वाले चिंतकों में से एक हैं उनका मानना है –“इस प्रकार जीवन-मूल्यों या मानों के विषय में बराबर ही द्वन्द्व उपस्थित होते रहते हैं और मनुष्य किसी न किसी प्रकार उसके निर्णय भी करते रहते हैं । जिस मनुष्य का चित्त निर्मल और शुद्ध होता है उसका निर्णय उत्तम होता है । उसी को हम सुसंस्कृत मनुष्य कहते हैं ।2 शास्त्रीय परंपरा से अलग होकर उच्छृंखलता को नवीनता के रूप में प्रस्तुत करने वाले चिंतकों से अलग, परंपरा की यात्रा को अग्रसर करने वाले ऑचार्यों में द्विवेदी जी का स्थान अन्यतम है । द्विवेदी जी के चिंतन का निष्कर्ष और उसका लक्ष्य मात्र मानवीयता ही है । वे ऐसे सांस्कृतिक मनीषी हैं, जिनके सामने समग्र सभ्यता एक व्यक्ति के रूप में उपस्थित हो जाती है । मनुष्य के चिंतन और विकास के प्रति वे बहुत सजग थे –“मनुष्य अपने भविष्य के बारे में चिन्तित है । सभ्यता की अग्रगति के साथ ही चिन्ताजनक अवस्था उत्पन्न हो जाती है । इस व्यावसायिक युग में उत्पादन की होड़ लगी हुई है । कुछ देश विकसित कहे जाते हैं, कुछ विकासोन्मुख ।3
साहित्य की किसी भी विधा का किसी भी दृष्टि से परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया जा रहा हो से द्विवेदी जी सर्वत्र मानव समाज, मानव जीवन, मानव सभ्यता, मानव स्वभाव का अभिन्न अंग मानकर ही चलते हैं साहित्य केवल बुद्धि-विलास नहीं है । वह जीवन की वास्तविकता की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकता । साहित्य के उपासक अपने पैर के नीचे की मिट्टी की उपेक्षा नही कर सकते।4 साहित्य का इतिहास हो या निबंध, उपन्यास हो या समीक्षा, अनुवाद हो या शोध, कविता बो या भाषण द्विवेदी जी की विचारधारा का मूल केंद्र मानव है रहा है । वे कहते हैं वास्तव में हमारे अध्ययन की सामग्री प्रत्यक्ष मनुष्य है । अपने इतिहास में इसी मनुष्य की धारावाही जय-यात्रा पढ़ी है, साहित्य में इसी के आवेगों, उद्वेगों और उल्लासों का स्पदंन देखा है । राजनीति में लुका-छिपी के खेल का दर्शन किया है । अर्थशास्त्र में इसकी रीढ़ की शक्ति का अध्ययन किया है । यह मनुष्य का वास्तविक तक्ष्य है ।5 वस्तुतः ऑचार्य जी का लक्ष्य मानव को हकीकत में मनुष्य बनाना ही रहा है । साहित्य के माध्यम से वे मनुष्य के साथ-साथ संपूर्ण मानव जाति का परिष्कार उसकी सर्वांगिण उन्नति और उसका भला करना चाहते हैं । भावात्मक और सामाजिक धरातल पर मनुष्य के सभी अभानों को दूर करने का लक्ष्य ही उनकी दृष्टि में साहित्य है क्या साहित्य और क्या राजनीति, सबका एकमात्र लक्ष्य इसी मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति है ।6 साहित्य मनुष्य के विकास के लिए होता है उसमें राजनीति भी शामिल है । राजनीति भी मनुष्य का काल्याण कारक तत्व है । मनुष्य का व्यक्तित्व कई तत्वों से गठित है और वह समाद के परंपरा प्राप्त और निरन्तर विकसित होते रहनेवाले रूप का अविरोधी रहकर है सामाजिक मंगल का विधान कर सकता है ।7
द्विवेदी जी श्रेष्ठ साहित्य की समक्ष पाठक पर पड़ने वाले मानवीय असर से करते हैं । वास्तव में साहित्य का स्वरूप उनके लक्ष्यों संबंधी सिद्धांतो के अनुकूल ही रहा है । उनका साहित्य उन सभी प्रयोजनों में सफल रहा है, इस प्रकार के साहित्य को ही श्रेष्ठ साहित्य के रूप में स्वीकारा जाता है । अपने एक निबंध में वे कहते हैं मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है, उतने ही अंश में वह सार्थक और महान है । वही भारतीय संस्कृति है, उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा भाव उचित है । यह प्रयास अपनी बढ़ाई का प्रमाणपत्र संग्रह करने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य की जययात्रा में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से प्ररोचित है । इसी महान उद्देश्य के विए उसका अध्ययन, मनन और प्रकाशन होना चाहिए ।8 वस्तुतः उप्रयुक्त उक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी दृष्टि में उसी साहित्य को प्रकाशित होना चाहिए जो मनुष्य के विकास में उसका सार्थक बन सके । मानव के विकास को आगे न ले जाने वाला साहित्य निर्रथक है । मनुष्य के आंतरिक एवं बाह्य सभी प्रकारों के विकारों को दूर करने वाला ही साहित्य मनुष्य के दीवन में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक विकास के लक्ष्य को साकर कर सकता है । साहित्य मनुष्य के सर्वांगीण विकास का पथ प्रसस्थ करता है ।
द्विवेदी जी के समक्ष मानव की तीन कोटियाँ है, प्रथम दीन-हीन, दुर्लब एवं परमुखापेक्षी मानव जो शोषित होकर पशु जैसा जीवन यापन कर रहे है । द्वितीय वे जो दया-विवेक-धर्महीन वृत्तियों के कारण क्रूर एवं कठोर कार्य करते हैं और शोषक एवं पीड़क के रूप में दैत्यों जैसा कृत्य करते हुए जीवन याहन करते हैं । तृतीय प्रकार के मनुष्यों में उन मनुष्यों को रखा गया है जो न पीड़ित हैं न पीड़क और न ही शोषित न ही शोषक । द्विवेदी जी के अनुसार साहित्य का प्रयोजन इस प्रकार के मनुष्यों में मानवीयता का संचार कर उन्हें सच्चा मानव बनाना ही रहा है । इसीलिए इसमें इनका साहित्य काफी हद तक सफल रहा है जो मनुष्य के समस्त अभावों, विकारों को दूर कर उसे वास्तविक मनुष्य बनाना है की ओर ही अग्रेषित करता है । समाज में फैली विभिन्न जातियों के आपसी संघर्ष और मिलन को अनुपम रूप में उद्घाटित करते हुए वे कहते हैं ये जातियाँ कुछ देर तक झगड़ती रही हैं और फिर रगड़-झगड़कर, ले-देकर पास-ही-पास बस गयी हैं भाइयों की तरह ! इन्हीं नाना जातियों, नाना संस्कारों, नाना धर्मों, नाना रीति-रस्मों का जीवन्त समन्वय यह भारतवर्ष है ।9 ‌भारत में बसने वाली विभिन्न मनुष्य जातियों के बीच के आपसी संघर्ष के समन्वय में भारत में बसे मनुष्यों में जो मानवीयता देखी जा सकती है वह अन्यत्र दर्लभ है । मानव के मध्य समन्वय और उनके अंदर निहित मानवीयता को उजागर करना ही द्विवेदी जी से साहित्य का एक प्रमुख प्रयोजन रहा है । वह अपने इस प्रयोजन में सर्वथा सिद्ध साबित हुए हैं ।
ऑचार्य द्विवेदी जी की मानवतावादी दृष्टि यथार्थोन्मुखी है । वे अपनी मानवतावादी दृष्टि के निरूपण के लिए आदिकाल के इतिहास से सहारा लेते है तो अपने निबंध साहित्य में संस्कृत के साहित्य के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान का भी प्रयोग करते हैं । द्विवेदी जी तीनों कालों अर्थात भूल, वर्तमान और भविष्य में परस्पर समन्यव बनाने में पूर्ण सफल रहे हैं । उनके अनुसार एक साहित्यकार का समग्र जीवन मानव सहानुभूति से सदैव परिपूर्ण होना नितांत आवश्यक है । उनके चिंतन का यह निष्कर्ष है –“जो साहित्यकार अपने जीवन में मानव सहानुभूति से परिपूर्ण नहीं है वह जीवन के विभिन्न स्तरों को स्नेहार्द्र दृष्टि से नहीं देख सकता, वह बड़े साहित्य की सृष्टि नहीं कर सकता ।10 उनके समस्त साहित्य के केंद्र में मनुष्य ही रहा है । समस्त साहित्य मानव प्रधान है । जब वे उत्तम साहित्यक दृष्टिकोण की चर्चा करते हैं तो उवके सामने मानवीयता का प्रखर तेजोमयी रूप रहता है । द्विवेदी जी का मानव केवल देवत्व का आकांक्षी नहीं है बल्कि कई स्थानों पर वह बड़ा भी है । उनकी दृष्टि में मानव के जीवन में होने वाले विभिन्न विकारों, परेशानियों को एक दम से दूर नहीं किया जा सकता । उसके लिए मनुष्य निरन्तर संघर्ष करता है तब कहीं जाकर वह इन सबसे मुक्त है पाता है । वर्तमान सामाजिक सामाजिक व्यवस्था को देखते हुए मानव के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं मनुष्य का जीवन स्लेट पर लगाया जाने वाला हिसाब नहीं है कि गलती हुई, तो उसे मिटाकर फिर से ठीक-ठीक हिसाब लगा लिया गया ।11 मानवतावाद मनुष्य और उनके मूल्यों, क्षमताओं पर, और मूल्य के केन्द्रों की एक प्रणाली है । यह प्रणाली द्विवेदी जी के समस्त निबंध साहित्य में पाई जाती है । मानव को द्विवेदी जी सृष्टि का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी मानते हैं । उसकी दुर्दम्य जिजीविषा उसे निरंतर विकासोन्मुख बनाती है । वह जो भी चाहे बन सकता है, जो भी चाहे कर सकता है । मनुष्य की गरिमा का नये स्तर पर उदय हुआ और माना जाने लगा कि मनुष्य अपने में स्वत: सार्थक और मूल्यवान है । वह आन्तरिक शक्तियों से संपन्न, चेतन-स्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वत: निर्णय लेने वाला प्राणी है । सृष्टि के केन्द्र में मनुष्य है, तो द्विवेदी जी के साहित्य का प्राण भी मनुष्य ही है सच्चा साहित्य चित्तगत उन्मुक्तता को जन्म दोता है । वह सह्रदय के चित्त को रूढ़ और निर्जीव संस्कारों से मुक्त करके नये संदर्भ में नयी ग्राहिका शक्ति से सम्पन्न करता है ।12 इसी कारण जब ऑचार्य द्विवेदी जी मानव की शक्ति की सीमा निर्धारित करना चाहते है तो उन्हें कोई सीमा रेखा नहीं मिलती है । उनकी दृष्टि के समक्ष जीवतत्व के उद्भव और मानव रूप में उसकी परिणित का सम्पूर्ण चित्र अंकित हो जाता है ।
मानवीयता ऑचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के निबंध साहित्य के अधिकांश निबंध मानवीय गुणों से ओतप्रोत हैं । वे मानवातावादी लेखक एवं मानवीय संवेदना के निबंधकार हैं । मानव कल्याण की मूल भावना को लेकर ही उन्होंने साहित्य की रचना की है । उनके मानवदावादी स्वर उनके निबंध साहित्य में पूर्ण रूप से पाया जाते हैं । समाज में निर्धारित नियम, कायदे और आचार-विचार, मान-मर्यादा के पालन पर भी जोर दिया है, जिससे मनुष्यों को अपने कर्तव्यों के निर्वहन में लाभ मिलता है । जितने दिनों तक वैशाली के नागरिकों ने अपने समाज के प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान किया, अपने बनाये नियमों का पालन किया, अपने बुजुर्गों की बात मानी, अपनी कुलस्त्रियों की महिमा का आदर किया, अपने पूजनियों की पूजा की, धर्म और ज्ञान में जो श्रेष्ठ वे चाहे घर के हों या बाहर के, सबको स्वतंत्र भाव से विचरण करने दिया, उनका स्वागत-सम्मान किया, तब-तक चंचला लक्ष्मी स्थिर बनकर विराजती रहीं ।13 समाज की सभी समस्याओं को उजागर कर उसे मानवीयता का रूप प्रदान करना निबंधों का मुख्य लक्ष्य रहा है । सामाजिक भावना के माध्यममनुष्य के विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत रहते हैं । आधुनिक युग में मानवीय विकास निबंधों में सर्वमान्य रूप से पाया है । मनुष्य की बुद्धि निःसीम है । उसका विकास अब भी हो रहा है । उनका चरम विकास कौन जानता है कि कभी होगा कि नहीं ? इस बुद्धि के बल पर आरोपित सिद्धांत सदा अस्थिर रहेंगे । एक आयेगा तो दूसरा जायेगा ।14 लेकिन यहाँ सिद्धांतों के स्तर पर मनुष्य की सार्वभौमिक सर्वोपरि सत्ता स्थापित हुई हैं । मनुष्य भौतिक स्तर पर ऐसी परिस्थितियाँ और व्यवस्थाएँ विकसित करता रहा है । यही चिंतन धाराएं मनुष्य को प्रेरित कर प्रकारान्तर में मनुष्य की सार्थकता और मूल्यवत्ता में विश्वास पैदा करती हैं ।
द्विवेदी जी का निबंध साहित्य मानव की गरिमा को कुण्ठित न करके उसमें सहायक सिद्ध हुआ है । वे मानव का अवमूल्यन करते हुए नहीं दिखते । द्विवेदी जी का मानववाद व्यक्ति परक नहीं है । वह बृहतर मानव समुदाय के विकास को संकेतिक करता है । यह मानववाद मनुष्य के मन में पुरुषार्थ तथा वैचारिक चेतना को प्रोत्साहन प्रदान करता है । आदमी के सामंजस्यपूर्ण विकास में मनुष्य की चरम उपलब्धि छिपी है सौभाग्यवश हमारे देश का इतिहास बहुत विशाल है और मनुष्य के जीवन में आ सकने वाली सैकड़ों तरह की बाधाओं का उसे अनुभव है । परन्तु यदि हम समूची जनता को ठीक-ठीक समझने का प्रयत्न करें और केवल उसके एक भाग-चाहे वह कितना ही शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण क्यों न हो वे इतिहास को देश का इतिहास समझते रहे तो हम समस्या का ठीक-ठीक अन्दाजा नहीं लगा सकेंगे ।15 द्विवेदी जी इतिहास की याद दिलाते हुए मानव समाज को विकसित करने के पक्षधर हैं । वे जानते हैं कि मनुष्य जड़ता से चेतन की ओर जाता है । पशुत्व या जड़त्व का परिहार ही मनुष्यत्व ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ रूप है । मनुष्य नितांत पशुता में जीवित नहीं रह सकता । वह स्वाभाविक रूप से उपर की ओर जाता है, वह सामाजिक प्राणी है । अतः समाज में संतुलन बनाये रखने के लिए पशुता को त्यागकर मनुष्यत्व को ग्रहण करना ही उसकी खासियत है । मनुष्य के संबंध में उनका विचार है मनुष्य क्या है ? आहार-निद्रा के साधनों से प्रसन्न होने वाला, घर-द्वार को जुटाकर खुश रहने वाला, कौड़ी-कौड़ी जोड़कर माया बटोरनेवाला मनुष्य भी मनुष्य ही है, पर यही सब कुछ नहीं है । मनुष्य पशु का ही विकसित रूप है । पर इकलिए मनुष्य पशु ही नहीं है । पशु के समान धर्म उसमें रह गये हैं । उसकी पूर्ति से वह संतुष्ट भी होता है, पर यही सब कुछ नहीं है । वह पशु से भिन्न है, पशु से उन्नत है, क्योंकि उसमें संयम एवं तप करने की शक्ति है । इन्द्रिय परायणता पशुसामान्य धर्म है । जितेन्द्रियता मनुष्य की अपनी विशेषता है । गांधीजी ने मनुष्य को इस स्तर पर ले जाने का प्रयत्न किया था । यही मनुष्य की सेवा है ।16 द्विवेदी जी का मानववाद छोटे व निम्नजाति के उपेक्षित व्यक्तियों के भीतर भी आत्मगौरव का भाव जगाकर उन्हों समाज में उचित स्थान पर प्रतिष्ठित करने वाला है ।
द्विवेदी जी आदमी के सामंजस्यपूर्ण विकास का सपना देखने वाले साहित्यकार हैं । वे मनुष्य की आध्यात्मिक और भौतिक उपलब्धियों के बारे सोचते हैं । वास्तव में वे सार्वभौमिक उदासीनता को दीर करने वाले निबंधकार हैं । वे साधारणता में महानता के दर्शन कराते हैं । इसलिए शुरू-शुरू में मानवदावादी दृष्टि के साथ राष्ट्रीयतावादी दृष्टि का कोई संघर्ष नहीं हुआ, उस काल के सभी लेखकों और कवियों में दोनों ही दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं । परन्तु साहित्य-क्षेत्र में मूल चालक मनोवृत्ति मानवतावादी ही थी ।17 द्विवेदी जी ने मनुष्य के सामाजिक जीवन में साधक धर्म, दर्शन, साधना को ही अपनाया है । क्योंकि मनुष्य का धर्म, दर्शन मनुष्य के सामाजिक जीवन प्रवाह अथवा मनुष्यता की सिद्धि में अवरोधक सिद्ध होती हा तो वह मनुष्य कहलाने का अधिकारिणी नहीं हैं । साहित्य अगर मनुष्य के बारे में नहीं सोचता वह साहित्य साहित्य नहीं हो सकता । साहित्य का मुख्य लक्ष्य मनुष्य का विकास होना चाहिए । विकास की चिंताओं के कारण विकसित और विकासशील के चक्कर में अमीरी और गरीबी का फासला बढ़ गया है मनुष्य अपने भविष्य के बारे में चिंतित है । सभ्यता के अग्रगति के साथ ही चिंताजनक अवस्था उत्पन्न होती जा रही है । इस व्यावसायिक युग में उत्पादन का होड़ लगी हुई है । कुछ देश विकसित कहे जाते हैं, कुछ विकासोन्मुख । यह कहने का एक भद्र तरीका ही है । कहना यह होता है कि कुछ देश अच्छे-खासे अमीर हैं और कुछ दरिद्र ।18 द्विवेदी जी की दृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है । द्विवेदी जा के निबंध साहित्य से यह स्पष्ट है कि वे मानवतावादी आलोचक हैं । वे मानवतावाद को एक विशिष्ट मानववादी जीवन के उद्देश्य के रूप में जिम्मेदार ठहराते हैं ।
द्विवेदी जी को भाषा में व्याकरण की दृष्टि से महारत हासिल कर है । इसका इस्तेमाल वह मनुष्य को चरण, वाकपटुता या व्याख्यान विद्या प्राप्त करने के लिए करते हैं । अनुनय की यह कला अपने आप के उपयोग की कला है । द्विवेदी जी सभी पुरुषों और महिलाओं को बेहतर जीवन देने के लिए इस कला को साधन मानते हैं, ताकि मनुष्य का जीवन और बेहतर ढंग से सुधर सके । समाज में जनता के बीच बढ़ती दूरी पर वे कहते हैं साधारण जनता और उच्च शिक्षित को बीच चौड़ी खाईं तैयार हो गई है, उसे पाटने के लिए कोई भी कीमत बड़ी नहीं है ।19 निश्चय ही द्विवेदी जी आम जन के पक्षधर थे । मनुष्य से उन्हें बेहद लगाव था । उनका समग्र निबंध साहित्य मानवतावाद के बुनियादी चिंताओं, परेशानियों, दुःख-सुख से भरा पड़ा है । ऑचार्य द्विवेजी जी के मानवतावादी दृष्टिकोण के संबंध में इतिहास लेखक डॉ. रामदरश मिश्र का मत है कि द्विवेदी जी मानवतावादी आलोचक हैं । वे मनुष्य की समस्त सामाजिक उपलब्धियों को साहित्य की सामग्री मानते हैं, किंतु वे साहित्य के मूल तत्वों के साथ उनका वैज्ञानिक संबंध जोड़ते हैं ।20 साहित्य यदि मनुष्य के लिए है, तो यह मनुष्य जीवन की भाँति पूर्ण ही होना चाहिए । उसका एकांगिकता में निर्वाह कैसे संभव है । वास्तविक साहित्यकार वही है, जो कि अतीत और वर्तमान में रहने वाली अथवा संचित ज्ञान-राशि का अपने साहित्य में प्रयोग करता है ।
साहित्य का मूल्य मनुष्य को दूसरे मनुष्य अथवा समाज सापेक्ष बनाने में है क्योंकि उसे दूसरों के साथ सह-अनुभूति अथवा अकात्मकता की अनुभूति में वास्तविक आनंद मिलता है । मनुष्य के जीवन की प्रसन्नता कई प्रकार से भिन्न और मौलिक है । आज के साहित्य का लक्ष्य, प्रयोजन, विषय सभी कुछ मानव है । वह मानव शास्त्राय दृष्टिकोण वाला धीर मानव अथवा कोई विशिष्ट वर्ण समाज अथवा विशिष्ट गुणों वाला मनुष्य नहीं अपितु जनसाधारण है । मानव समाज में रहकर कई बार विकारों से ग्रस्त होकर गलतियाँ भी करता है  । मानव अपनी गलती को सुधारता भी है द्विवेदी जी कहते हैं - मनुष्य में यदि भीतर और बाहर यह सबल और स्वस्थ प्राणधारा हो तो छोटी-मोटी गलतियाँ स्वंय सुधरती रहती हैं ।21 मनुष्य की महिमा पर और उन सब बातों की महिमा पर मनुष्य के विशाल चित्त में स्नान करके निकलती है । द्विवेदी जी परदुःख कातरता और लोत सेवा की भावना रखते हैं । प्रेम हमारे समाज का महत्वपूर्ण मानवीय मूल्य है । मनुष्य प्रेम के बंधन में बंधा रहता है । भारतीय साहित्य में त्याग और प्रेम पर बहुत अदिक लेखनी चलाई गई है । द्विवेदी जी के निबंध भी इस त्याग और प्रेम से अछूते नहीं हैं । प्रेम मानव का स्वाभाविक धर्म है - यह प्रेम ही मनुष्य को सेवा और त्याग की ओर अग्रसर करता है । जहाँ सेवा और त्याग नहीं है, वहाँ प्रेम भी नहीं, वहाँ वासना का प्रबल्य है । सच्चा सेवा प्रेम और त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है ।22 द्विवेदी जी ने निबंध साहित्य में मानवीय कल्याण के लिए हिंसा, विद्रोह, अराजकता के स्थान पर प्रेम और त्याग की भावना को उजागर किया है । सत्य और अहिंसा इसलिए बड़े नहीं हैं कि वे स्वंय में सत्य और अहिंसा का नाम धारण किए हुए हैं । अपितु इसलिए ग्राह्य हैं कि इनसे अन्ततः प्राणि मात्र का कल्याण होता है ।
द्विवेदी जी का अडिग विश्वास है कि साहित्य चिरंतन तभी हो सकता है, जब उसका उपजीव्य और आश्रय दोनों मनुष्य है । साहित्य मनुष्य के ह्रदय में स्थान पाता हा है । साहित्य के माध्यम से जनता की सेवा साहित्यिक मूल्य है परन्तु सेवा का अर्थ मनुष्य के अलग नहीं होना चाहिए । साहित्य का सबसे बड़ा लक्ष्य मनुष्य के ह्रदय को संवेदनशील और उदार बनाना है । द्विवेदी जी का मानना है कि मनुष्य को साहित्य के माध्यम से भी रास्ता स्वंय बनाना चाहिए । मानव को पथ का प्रदर्शक स्वंय करना होगा, तभी वह अपने और अपने समाज को विकास प्रदान कर सकता है । हमें अपनी समस्याओं का सामना स्वंय करना पड़ेगा, स्वंय इसके लिए समाधान ढूँढ़ना पड़ेगा; हमारा रास्ता, अपना रास्ता होगा ।23  द्विवेदी जी कहीं साहित्य को अत्यंत स्प।ट रूप से साहित्य को साधना और मनुष्य को साध्य स्वीकार करते हैं । द्विवेदी जी के निबंध मनुष्य सामर्थ्य और शक्ति और लोकप्रियता के कारण साहित्य में अपनी अलग जगह बना सके हैं । द्विवेदी जी साहित्य को वृहतर मानवीय चेतना का अनुकरण मानते हैं, क्योंकि जीवन से अद्भूत साहित्य मनु।य की सौंदर्य साधना है ।
निष्कर्ष
भारतीय मनीषा और मानव जीवन की गत्यात्मक धारा के संदर्भ में ऑचार्य द्विवेदी जी का निबंध साहित्य समस्त कलाओं में भारतीय संस्कृति का व्याख्यान करता है । हम कह सकते हैं कि द्विवेदी जी मानवीयता के शक्तिशाली समर्थक हैं । वे मानवता के सच्चे पुजारी हैं । उनका निबंध साहित्य किसी वर्ग विशेष के लिए न होकर समष्टि के लिए है । वे अपने निबंधों में सभी को समेट लेते हैं । निश्चय ही मनुष्य की केंद्रीय यह दृष्टिकोण द्विवेदी जी को मानवतावादी निबंध साहित्य चिंतक के रूप में स्थापित करता है । सर्जन की सरसता चिंतन की प्रखरता आदि के द्वारा साहित्य की सृष्टि करने वाले का स्थान हिंदी निबंध साहित्य के लिए प्रकाश स्तंभ माने जाते हैं । द्विवेदी जी साहित्य को साधन रूप में ही स्वीकार करते हैं । साहित्य का साध्य अन्ततः मनुष्य का अशेष, सम्पूर्ण कल्याण है । ऑचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का निबंध साहित्य कलापरक एवं साहित्यिक मानविकी मूल्य सास्कृतिक गरिमा से ओतप्रोत हैं ।
संदर्भ-सूची
1.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है, पृष्ठ 24
2.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, भारतीय संस्कृति का स्वरूप, पृष्ठ 209
3.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, मनुष्य का भविष्य, पृष्ठ 450
4.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है, पृष्ठ 36
5.      अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ - 182
6.      उपरिवृत पृष्ठ - 41
7.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, साहित्य में मौलिकता का प्रश्न, पृष्ठ 84
8.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, भारतीय संस्कृति की देन, पृष्ठ 202
9.      हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है, पृष्ठ 36
10.  विचार और वितर्क, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 129
11.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, साहित्य में व्यक्ति और समष्टि, पृष्ठ 87
12.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, साहित्य की सम्प्रेषणीयता, पृष्ठ 93
13.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, वैशाली, पृष्ठ 153
14.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, धार्मिक विप्लव और शास्त्र, पृष्ठ 334
15.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, पुण्यपर्व, पृष्ठ 402
16.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, वह चला गया !, पृष्ठ 404
17.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, ततःकिम?, पृष्ठ 422
18.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-09, मनुष्य का भविष्य, पृष्ठ 450
19.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, राष्ट्रीय संकट और हमारा दायित्व, पृष्ठ 428
20.  हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन
21.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, जनपदों की साहित्य-सभाओं का कर्त्तव्य, पृष्ठ 370
22.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, मुंशी प्रेमचंद, पृष्ठ 326
23.  हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली भाग-10, विश्वभाषा हिंदी, पृष्ठ 211






"आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीः कुछ सूत्रात्मक वाक्य"

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