“शिवकुमार बिलगरामी कृत ‘नई कहकशाँ’ में
सामाजिक-चेतना”
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नाम:
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डॉ. सुबोध कुमार सिंह, भाषाविज्ञान विभाग लखनऊ
विश्वविद्यालय, लखनऊ
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वर्तमान पता :
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मकान सं.- सी-48, ब्लॉक-4
आयकर कलोनी, एच.एम.टी. वॉच
फैक्टरी के पास, जालहल्ली, बेंगलूरु,
कर्नाटक – 560013
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ई-मेल :
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संपर्क नं. :
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8762300617
एवं 8971914701
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शिवकुमार 'बिलगरामी' जी का जन्म 12 अक्टूबर, 1963 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला की
बिलग्राम तहसील के तहत महसोनामऊ गाँव में हुआ था । आप प्रारंभ से ही साहित्य
प्रेमी रहें हैं एवं खुद अपने पर भरोसा करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहे हैं । आपके
पिता का नाम श्री रघुबर सिंह और माता का नाम लक्ष्मी देवी था । इनके पिता की कुल
आठ संताने थी जिनमें छ: पुत्रियाँ एवं दो पुत्र थे । आप अपने पिता के कनिष्ठ पुत्र हैं । आपका बचपन बहुत ही कठिनाईयों से भरा रहा है । आपके पिता
बहुत ही साधारण एवं क्षेत्र के प्रतिष्ठित व सम्माननीय व्यक्ति थे । 'बिलगरामी' जी आधुनिक ग़ज़लकारों के बीच में अपना स्थान रखते हैं । उन्होंने लखनऊ
विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य विषय में एम. ए. की उपाधि प्राप्त की । इसके
पश्चात आपने कुछ समय तक आकाशवाणी, दिल्ली एवं दिल्ली के विभिन्न प्रकाशकों के लिए
अनुवाद कार्य किया । वर्तमान में आप भारतीय संसद के लोकसभा में एक प्रतिष्ठित
अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं । शिवकुमार 'बिलगरामी' आधुनिक समय के उभरते ग़ज़लकार एवं गीतकार हैं । उनकी ग़ज़लों में एक
नयी कसावट परिलक्षित होती है । उनके पास स्वीकार का बड़ा ह्रदय है जहाँ यथार्थ की
जमीन पर परम्परा-आधुनिकता, सुख-दुःख, गाँव-शहर, खेत और बाजार एक साथ रहना चाहते हैं । समाज के प्रगतिशील तत्वों और मानव के उच्चतर मूल्यों को बचाने की चिंता ही लेखक शिवकुमार
'बिलगरामी' के साहित्य की केंद्रीय चिंता है । उनकी ग़ज़लों में परम्परा के श्रेष्ठ सोपानों पर
टिके रहने का आह्वान करती हुई, नवाधुनिकता के उस ठोस प्रस्थान - बिन्दु तक पहुँचाती है, जहाँ मानवीय चेतना एवं सामाजिक चेतना अपने
चरम पर पहुँच हमारे जीवन संघर्ष को सही दिशा में आगे ले जाने के लिए प्रेरित करने
लगती है । यह टकराहट उस समन्वयवादी दृष्टि से उपजी प्रतीत होती है, जो उनके भीतर के शहर तथा गाँव, वर्तमान तथा अतीत के बीच निरन्तर चलता
रहता है । यह नवाधुनिकता देशज है, पश्चिम से प्रभावित नहीं ।
समाज एवं उसकी
स्थापना की परिकल्पना सामाजिक चेतना का ही परिणाम होती है । इसलिए सामाजिक चेतना
के उन्मेष का इतिहास आदि मानव की सामाजिक चेतना के प्रारंभ से ही आरंभ हो गया था ।
समाज के निर्माण के लिए प्राकृतिक-भौगोलिक परिस्थितियों ने भी मनुष्य की सामाजिक
चेतना को समय-समय पर नए-नए आयाम प्रदान किए हैं, जिनमें से कतिपय आयाम
प्रागैतिहासिक समय की बची हुई सामग्री में जहाँ-तहाँ उपलब्ध होते रहते हैं । चेतना
का संबंध मनुष्य के देश, काल, रहन-सहन एवं वातावरण से पूर् रूप से जुड़ा हुआ है ।
इसलिए सामाजिक चेतना, आत्म-चेतना से आरंभ होती है । “जब आत्म-चेतना परिवेश से दो-चार होती है
और अनुभव के द्वारा अपने तरह से परिवेश को प्रभावित करती है तो यह यथार्थ चेतना बन
जाती है । यह एक सामाजिक प्रक्रिया है ।”1 इसी प्रक्रिया से सामाजिक चेतना को स्वरूप मिलता है जिससे सामाजिकता की
झलक मिलती है । अतः सामाजिकता प्राथमिक है और सामाजिक चेतना गौण । इसका अर्थ हुआ
कि सामाजिकता मनुष्यों की आध्यात्मिक गतिविधि का आधार है । “सामाजिक
चेतना आध्यात्मिक एवं वैचारिक जीवन, मनुष्यों के विभिन्न विचार तथा दृष्टिकोण यथा
राजनैतिक, कानूनी, नैतिक, दार्शनिक आदि तथा अन्य विचार सामाजिकता को प्रतिबिम्बित करते हैं ।”2 धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, अर्थ व्यवस्था,
समाज आदि मनुष्य की गतिविधियों के अनेक क्षेत्र हैं और यही क्षेत्र उसकी सामाजिक
चेतना के भी क्षेत्र हैं जो भारतीय चेतना के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के ही
पर्याय हैं । हिंदी ग़ज़लकारों ने अपने सामाजिक क्षेत्रों से प्रभाव ग्रहण किए हैं
और अपनी सामाजिक चेतना को विभिन्न स्तरों पर अभिव्यक्ति दी है । सामाजिक चेतना के
अंतर्गत यहाँ पर आर्थिक, राजनैतिक, संबंध, पारिवारिक, व्यक्तिवादी, ग्राम्य आदि पर
विचार किया जायेगा ।
1.
आर्थिक चेतना
मानव समाज में जीने के लिए अर्थ का अत्यधिक महत्त्व है ।
सच तो यह है कि अर्थ अर्थात धन के अभाव मेंजीवन संभव ही नहीं है । अर्थ के संबंध
में हिंदी के प्रसिद्ध ग़ज़लकार निरंकार देव सेवक कहते हैं – "आदमी में आदमीयत क्या रही, पास में
उसके अगर कंचन नहीं ।"3 इस पर इन पंक्तियों का अवलोकन किया जा सकता है –
"दानादिल
को है पता हाले-दिल ग़रीब का ।
सब्र तू बनाए
रख सब्र से वो क्या न दे ।।"4
धन-संपत्ति का मोह इतना भयानक है कि मनुष्य स्वार्थी,
बेईमानी तथा रक्तपात पर भी उतर आता है । इस आपाधापी में संबंधों, पारिवारिक एकता
तथा पूरे समाज पर कुप्रभाव पड़ता है । साथ ही इसके दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं
। जब इंसानियत की तुलना में धन को अधिक वरीयता प्रदान की जायेगी तो समाज पर बुरा
प्रभाव पड़ेगा ही । समाज में विषमता की स्थिति भी अपनी जगह बना लेगी । धन कमाने के
लिए आज समाज में होड़ लगी हुई है । कुछ पैसा प्राप्त करने के निए मनुष्य ने अपनी
खुशियों को दांव पर लगा रखा है –
"बेच दी क्यों ज़िन्दगी दो चार आने के लिए ।
एक दो लम्हा तो रखता मुस्कराने के लिए ।।"5
धन के अभाव में व्यक्ति का कोई साथ नहीं देता है सब मुँह
छिपा लेते हैं । जब समय का चक्र खराब दिशा
पकड़ लेता है ते उसे रास्ते पर आने में कभी कम तो कभी बहुत समय लग जाता है । इस
शेर में इसका चित्रण देखा जा सकता है –
"भाग
जाते है जो तुमसे मपँह चुराकर आए दिल ।
एक दिन उनसे
कभी तुम मुँह चुराकर देखिए ।।"6
X X X X X
"ज़रा
सा वक़्त ते दे ज़िन्दगी मुझको सँभलने का ।
बुरा हो
वक़्त तो कुछ वक़्त लगता है सँभलने के लिए ।।"7
अर्थ-लिप्सा शोषण का चक्र चलाती है जिसकी करवटों में
सर्वहारा व्याक्ति निरंतर दीर्घ काल से पिसता आ रहा है । शोषित व्यक्ति शोषक के
अधीन रदता है । आधुनिक समय अर्थ का प्राप्ति के लिए कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो
धनो-उपार्जन के लिए निरंतर शोषण कर रहे हैं । धन-लिप्सुओं के शोषण का वर्णन
निम्नलिखित शेर में दृष्टव्य है –
"भटका
हुआ मुसाफ़िर अब रास्ता न पूछे ।
कुछ लोग हैं
यहाँ जो सबको चला रहे हैं ।"8
बच्चों के अंग भंग करके उन्हें भीख मांगने पर विवश किया
जाता है ताकि उन्हों शरीर से अक्षम देखकर लोग दया से द्रवित हो उठें और भिक्षा
पात्र में कुछ न कुछ डालें । इस प्रकार भिक्षा की कमाई से 'दादा' तो अपनी
लिप्सा शान्त कर लेते हैं । घर से दूर होकर उन्हें खाने-पीने की समस्यों से लगातार
जूझना पड़ता है, परन्तु उनके दर्द को कौन समझता है, यह बात संवेदनशील ग़ज़लकार से
छिपी नहीं है । वह कहता है –
"दूर
जाकर ये न जाने क्या करेंगे ।
कौन देगा बादशाहत नौकरों को ।।
दाना-पानी के लिए बेघर हुए हैं ।
दाना-पानी कौन देगा बेघरों को ।।"9
2. संबंध स्तरीय चेतना
साहित्य सदैव समाज का पथ प्रदर्शन
करता रहा है । साहित्यकार ने समाज के सामने आदर्श एवं नैतिक मूल्यों का उद्घाटन
किया है तथा देश और समाज को सुसांस्कृतिक चेतना प्रदान की है । प्राणी मात्र के
मानस पटल पर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया है ।
वह युगीन परिस्थितियों को साहित्य में व्यक्त करता है । साहित्य मानव जीवन एवं
समाज की अभिवृतियों एवं अनुभूतियों का प्रतिरूप होता है । मानव समाज में
माता-पिता, पुत्र, पुत्री, बहन-भाई, मित्र, पति-पत्नी, आदि अनेक शाश्वत संबंध हैं
। जिनकी पवित्रता की लोग सौगन्ध उठाया करते हैं । पुत्र अपने माता-पिता की उपेक्षा करने लगे हैं । परन्तु
ग़ज़लकार उन्हें सचेष्ट करता है ।
"गाँव में माँ-बाप तुमको याद करते हैं बहुत ।
वक़्त थोड़ा सा निकालो गाँव जाने के लिए ।।"10
आधुनिक समय में वह समय भी बदल गया है जब एक मित्र दूसरे
मित्र की प्रगति देखकर प्रसन्न होता था । आधुनिक समय में यह संबंध विषरूपी हो गया
है । दोस्ती का निर्वाह करना अत्यन्त कठिन हो गया है । आज के मित्र बदल गये हैं –
"निबाह गर न दोस्ती तो दुश्मनी को राह दे ।
मना के मैं हूँ थक गया मुझे न और अब थका ।"11
X X X X X
"अगर होती ख़ुशी तुमको तो क्या तुमको न ग़म होते ।
ख़ुशी होती तो ख़ुश होते ख़ुशी से ग़म न कम होते ।।"12
आज हमारे समाज की दशा ऐसी है कि भाई ही अपने भाई का
शत्रु बन गया है । स्वार्थपरता इतनी बढ़ गई है कि वह छोटी-मोटी हानि पहुँचाकर भी
शान्त नहीं होती । हालत यह है कि शत्रुता के वशीभूत होकर एक भाई दूसरे भाई का नाम
तक सुनना नहीं चाहता है । अपने-अपने स्वार्थ के कारण कोई एक दूसरे से मेल-जोल नहीं
रखना चाहता है । इस सामाजिक चेतना को 'बिलगरामी' जी की ग़ज़ल में इस प्रकार
से अभिव्यक्ति मिली है –
"भूल जाओं फूल बरसेंगे कभी उस हाथ से ।
संग को बरसाने वाला संग ही बरसाएगा ।।"13
आधुनिक समय में व्यक्ति इस तरह से व्यस्थ है कि उसे अपनी कोख से जन्म देने वाली माँ के लिए भी समय
नहीं है । आज के मनुष्य के अंतर की मनुष्यता इतनी कमजोर हो गई है कि उसमें संवेदना
बची ही नहीं है । स्वप्नदृष्टा माँ के संबंध में ग़ज़लकार की संवेदना दृष्टव्य है –
"माँ मुझे अपनी क़सम अक्सर खिलाती है ।
ख़ुद कभी मेरी क़सम हरग़िज न खाती है ।।"14
3. पारिवारिक चेतना
मानव समाज में गड़बड़ाते संबंधों के कारण संयुक्त
परिवार, बड़े परिवार, पूर्ण परिवार तथा सामूहिक जीवन की अस्मिता आशंकित हो गई है ।
पारिवारिक उत्तरदायित्वों को भुलाकर या उन्हों निभा पाने में अपने को असमर्थ पाकर
लोग, समूह को छोड़कर व्यक्तिवादी बनते जा रहे हैं । ऐसे लोग भरे पूरे घर में
बुजुर्ग, माता-पिता, भाई-बहन के प्रति अपने दायित्वों की अनदेखी करके एकदम आत्मपरक
हो गए हैं । अपनी पत्नी को लेकर पूर्ण परिवार से अलग अपने लिए छोटा-सा घर बनाने
लगे हैं । धीरे-धीरे जीवन की खुशियाँ मनुष्य के पास से दूर होती जा रही हैं । जीवन
जे सतरंगी होता था मुर्झाने लगा है । इस सामाजिक चेतना से प्रेरित हेकर शिवकुमार 'बिलगरामी' कहते हैं
–
"फूल जो रंगीन थे वो ज़र्द पीले हो गये ।
ज़िन्दगी में कैसे-कैसे रंग लाए ज़िन्दगी ।।
X X X X X
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी का अब न वो रिश्ता रहा ।
ज़िन्दगी की शम्अ को अब खुद बुझाए
ज़िन्दगी ।।"15
अलग से छोटा सा घर न बना पाने वाले लोग विवश होकर अपने
पारिवारिक मकान में रहते हैं, परन्तु परिवार वालों के साथ रह कर भी ये लोग मन में
बेगानापन पाले रहते हैं । इसका एहसास किसी दुखद घटना की पूर्व सूचना देता है । घर के
लोगों के मध्य छोटी-छोटी बातों को लेकर कलह की स्थिति बनी रहती है । एक माता-पिता
से उत्पन्न बच्चों के मध्य इस तरह की कलह पर पारिवारिक मुखिया सोचने पर विवश हे
जाता है –
"गुलों में रंग जो न थे वो रंग भी दिखा गई ।
हयात कैसे-कैसे गुल हयात में खिला गई ।।
X X X X X
मेरे ही साथ
क्यों हुए ये हादसे भी बार-बार ।
कि बाहरा हवा
मेरे चिराग़ को बुझा गई ।।"16
4. व्यक्तिवादी चेतना
समूह-भावना से रहित आज का मनुष्य निपट अकेला पड़ गया है
। शहर में ही क्या अब तो गाँवों में भी यही हाल है । शहर में अपार भीड़ है । क्या सड़क,
क्या फुटपाथ, यहाँ तक कि चौड़े-चौड़े बाजारों में चलते हुए आदमियों के कंधे छिल
जाते हैं । यहाँ किसी को किसी के दुःख-दर्द से मतलब नहीं है । सब अपनी ज़िन्दगी के
कार्य में व्यस्त हैं । मगर कोई किसी को नहीं जानता । ऐसे समाज की स्थिति का वर्णन
करते हुए 'बिलगरामी' जी ने लिखा है –
"लिखते गाते गीत ग़ज़ल यह कौन नगर में फिर आया ।
किस के दिल में पीर उठी है कौन मेरा है हमसाया ।।"17
X X X X X
"मेरे अश्क से, मेरे दर्द से नहीं वास्ता है जहान को ।
न तो अश्क हूँ किसी 'मीर' का न ही दर्द हूँ किसी 'दाग' का ।।"18
अकेलों की इस भीड़ का दृष्य यह है कि आदमी दम घोटू समाज में
जी रहा है, मगर क्या जी रहा है । रात-दिन आदमी की इस दयनीय दशा की चर्चाएँ होती
रहती हैं –
"रफ़्ता-रफ़्ता रात-दिन हम को मिटाया वक़्त ने ।
रेत का हम घर न थे जो एक पल में ढह गये ।।"19
आधुनिक मानव समाज के
क्रिया-कलापों से दूर रहना चाहता है । वह अपने परिवार के सिवा और अपनी उन्नति के
सिवा समाज से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता । समाज से कटे-कटे रहना उसका स्वभाव बनता
जा रहा है । इस कटाव के फलस्वरूप उसमें एकाकीपन बढ़ता जा रहा है –
"मेरा ख़ुलू ख़ुलु नहीं, मेरा ख़ला
ख़ला नहीं ।
ख़ुलू-ख़ुला में जश्न ही तो हुस्न का विसाल है ।।"20
आज के समय में मनुष्य और परिवेश दोनों बीमार हैं ।
मानसिकता ही बीमार हो तो मनुष्य कैसे सामान्य हो सकता है ? मनुष्य की असामान्य मानसिकता ने उसे
बीमार बना दिया है । मनुष्य के अधःपतन की यह पराकाष्ठा है कि वह अमानुष बन गया है
। उसके इस अधःपतन की छाया सामाजिक चेतना के दर्पण पर उकताहट बन कर आ पड़ी है ।
विकृत मनोवृति का मनुष्य उल्टे-उल्टे काम करता है । उसे उपालम्भ देते हुए ग़ज़लकार
कहता है –
"भौंह चढ़ाकर, आँख उठाकर ऊँचे सुर में बातें करना ।
यह कोई तहज़ीब नहीं है इसको बारम्बार न करना ।।"21
शिवकुमार 'बिलगरामी' ने ग़ज़ल में सामाजिक चेतना
के पूर्व वर्णित धूमिल पक्षो के साथ-साथ कुछ उज्ज्वल पक्ष भी प्रस्तुत किये हैं । कुछ
लोग सदियों से अत्याचार सहन करते हुए जी रहे हैं । कुछ ऐसे भी है जो अत्याचार का
नग्न नृत्य मूक दर्शक बन कर देख रहे हैं । मगर ज़रुरत पर वे काम न आकर पीड़ा को और
हवा प्रदान करते हैं । वे पीड़ित के प्रति संवेदना भी व्यक्त नहीं करते, बिलगरामी
जी की ग़ज़ल में समाज की इस सशक्त चेतना की अभिव्यक्ति हुई है –
"हम-दर्द कैसे-कैसे हमको सता रहे हैं ।
काँटो की नोक से जो मरहम लगा रहे हैं ।।"22
5. ग्राम्य चेतना
शहर की भीड़ भरे माहौल में भले ही जीवन की सुख सुविधाओं
का अपार भंडार क्यो न मौजूद हो, लेकिन भारत आज भी गाँवें में हा बसता है । भारत की
अधिकतर जनसंख्या गाँव में ही रहती है । शहर में रहने वाले जन-समूह का कोई-न-कोई
अंश गाँव से ही जुड़ा हुआ है । गाँव की जनता अपनी आवश्यकतानुसार फसलों को उगाकर,
छोटे-मोटे कार्यों को करते हुए अपना जीवन यापन कर रही है । शहरी व्यक्ति की यादें
गाँव में ही समाहित होती है, ग़ज़लकार उनसे अवाह्न करता है कि -
"गाँव के खेतों में उगतीं आज भी
यादें तुम्हारी ।
आज ही तुम गाँव जाओ फडस्ल अपनी काट लाओ ।।"23
प्रत्येक देश का
साहित्य उस देश के मनुष्यों के हृदय का आदर्श रूप है, जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिलुप्त
रहती है, वे सब भाव उस समय के
साहित्य की समालोचना से अच्छी तरह प्रगट हो सकते हैं । शिवकुमार जी ने अपनी ग़ज़लों
में भारतीय जीवन की विभिन्न समस्याओं और चुनौतियों पर अपनी राय व्यक्त की है । वह
साहित्य और समाज के संबंध में बहुत ही सटीक चर्चा करते हैं । आधुनिक समय में
रिश्तों से दूर करती हुई समस्या पर वे कहते हैं –
"बेटा-बेटी फ़ोन पर अक्सर
बताते हैं मुझे ।
वक़्त मिलता ही
नहीं है गाँव आने के लिए ।।"24
6. राजनीतिक चेतना :
साहित्य
में राजनीति को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाता है । मनुष्य के सभी सरोकार, उसके सभी सवाल असल में राजनीति से ही जुड़े सवाल हैं । राजनीति वर्तमान समय
का सबसे बड़ा सच है । हम अपने आप को राजनीति से भले ही अलग कर लें, राजनीति हमें मुक्त नहीं करती । मनुष्य की यह राजनैतिक नियति एक अलग तरह के
परिवेश को जन्म दे रही है । शिवकुमार 'बिलगरामी' जी भी
इस सच को स्वीकार करते हैं और राजनीति के साथ अपनी रचनाकारिता में इस विषय पर कहते
हैं –
"यह दौरे-सियासत
है, इसमें ये रिवायत है ।
दो दिल न मिलें
फिर भी तुम हाथ मिला रखना ।।"25
साहित्य, समाज और संस्कृति का रक्षक होता है । बिना साहित्य के
सभ्य समाज की कपल्ना ही नहीं की जा सकती है । लेकिन मौजूदा राजनीति का माहोल इतना
प्रभावी है कि जिसकी सत्ता पर पकड़ है, वही सर्वेसर्वा है । मीडिया जिसे सामज का
दर्पण समझा जाता है । लोग यह समझते हैं कि अखबारों में प्रकाशित सूचनाएँ सच के
धरातल पर खरी होंगी । राजनीतिक प्रभाव से वह भी कई बार बिकी हुई होती है –
"न्यूज़ क्या थी
और क्या छापी गई अख़बार में ।
आज फिर से बिक
गया मालिक मेरे अख़बार का ।।"26
7. यथार्थ-चेतना :
शिवकुमार
'बिलगरामी' की रचनात्मकता यथार्थ के धरातल पर टिकी
हुई है । यथार्थ की दुनिया ही उनके सृजन की दुनिया है । यथार्थ के प्रति उनका यह
आग्रह कई स्तरों पर दिखाई पड़ता है । यथार्थ पर बल देने की प्रक्रिया में ही वे
अतिशय भावुकता पर प्रहार करते हैं । मानवीय जीवन में हर समय कुछ-न-कुछ ऐसा होता है
जो उसे अहसास करता रहता है, उसी पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं –
"हर घड़ी डरती बहुत है ज़िन्दगी से ज़िन्दगी ।
ज़िन्दगी के हर
घड़ी दरपन दिखाए ज़िन्दगी ।।"27
ग़ज़ल
विषय से दूर और वस्तु के निकट होती है । यह 'वस्तु' के निकट होना संभवतः यथार्थ के निकट होना
ही है । वास्तव में आधुनिक मानव के संबंध में कोई कुछ स्पष्ट बता सके यह संभव नहीं
है । आज व्यक्ति मुँह से कहकर पलट जाने वाला है, बात की कोई अहमियत उसके ए मायने
नहीं रखती है । मानव की कथनी और करनी में अंतर आ गया है, जिस पर ग़ज़लकार कहता है –
"निगाहों में मेरी हैं आँखें ही आँखे
किसी का नज़रिया नज़र में कहाँ है ।।
हक़ीक़त बयानी नहीं है हक़ीक़त ।
ज़ुबां बेनज़र है नज़र बेज़ुबां है ।।"28
विचार
वस्तु का ग़ज़ल में खून की तरह दौड़ते रहना ग़ज़ल को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है, जब
हमारी ग़ज़ल की जड़ें यथार्थ पर निर्भर हों । कहना न होगा कि शिवकुमार 'बिलगरामी' की ग़ज़ल उसी यथार्थ की उपज है । बिलगरामी
जी का वैचारिक परिवेश भी यथार्थ की उधेड़बुन से ही निर्मित हुआ है और उनकी राजनीतिक
चेतना व उससे जुड़े मानवीय सरोकार भी वस्तुतः यथार्थ की मिट्टी से ही जन्मे हैं ।
अपने वचन के प्रति मान न रखने पर वे कहते हैं –
"वादे कई फ़ना हुए टूटे कई क़रार भी ।
आता नहीं क़रार अब मुझको किसी क़रार से ।।"29
इस
तरह भारतीय दृष्टि से आत्मा का अर्थ संकुचित व्यक्तित्व नहीं है । विस्तार ही
आत्मा की पूर्णता है । लोक-हित भी एकात्मवाद की दृण आधार-शिला पर खड़ा हो सकता
है । यश, अर्थ, यौन-संबंध, लोक-हित
सभी आत्म-हित के ऊंचे-नीचे रूप हैं । इन सब प्रयोजनों में वही उत्तम है, जो आत्मा को व्यापक-से-व्यापक और अधिक-से-अधिक
सम्पन्न अनुभूति में सहायक हो, इसी
में लोक-हित का यह ग़ज़ल संग्रह 'नई कहकशाँ' मान है ।
निष्कर्ष
आज हिंदी में ग़ज़ल कहने की भाषा और शिल्प के हर धरातल पर बहुत ही
सहजता और स्वतःस्फूर्तता है । इसमें शिवकुमार 'बिलगरामी' का अंदाजे बयाँ बिल्कुल स्पष्ट और सीधा है । उनकी अभिव्यक्ति की यह
सहजता जिंदगी के गहन और सहज बोध से आती है । सबसे बड़ी बात जो ग़ज़ल विधा की क्षमता
और व्यापक स्वीकार्यता की पहचान बनती है कि इसने हिंदी और उर्दू के भाषाई फ़र्क को
समाप्त कर दिया है । यह फ़र्क ग़ज़ल की विधा में शमशेर और दुष्यंत और उसके बाद के
हिंदी रचनाकारों के अपनाने से पहले हुआ करता था |
ग़ज़लकार उर्दू और फ़ारसी के जबरन ठूस कर भरे गए शब्दों से रचित या
कही गयी गजलों को ही श्रेष्ठ ग़ज़ल की कोटि में रखा जाता है । आज आम आदमी से दूर हुई
ग़ज़ल ने अपने पूर्वाग्रह को स्वयं ही झूठा साबित कर दिया |
इस पूरी विकास परम्परा में भाव-भंगिमा और अंदाजे-बयां पहले की
तुलना में बहुत सशक्त और प्रखर हुआ है | आज अपनी व्यापक समावेशी क्षमता के कारण ग़ज़ल रूमानी परम्परा से
निकलकर युगीन भाव बोध के साथ जुड़ गयी है और इसकी प्रवृति विकासोन्मुख है | शिवकुमार 'बिलगरामी' जी ग़ज़ल साहित्य की इस विकास परंपरा को एक नया मुकाम देने की
दिशा में अग्रसर हैं |
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संदर्भ-सूची
1. क्रिस्टोफर
काडवैल, इल्यूजन एण्ड रियालिटी, पीपल्स पब्लिकेशन हाउस, दिल्ली (1956) – पृ. – 181
2. बी.एम.
बोगुस्लास्की, ए.बी.सी.ऑफ डायलैक्टिकल्स एण्ड हिस्टोरिकल मैटिरीयालिज्म, प्रोग्रेस
प्रकाशन, मास्को (1978) – पृ. – 443
3. निरंकार
देव सेवक, हिंदी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लें, हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर (1982) –
पृ. – 103
4. शिवकुमार
'बिलगरामी', नई
कहकशाँ, अमृत प्रकाशन, दिल्ली (2015) – पृ.
– 91
5. उपरिवृत
– पृ. – 115
6. उपरिवृत
– पृ. - 93
7. उपरिवृत
– पृ. - 95
8. उपरिवृत
– पृ. - 31
9. उपरिवृत
– पृ. - 103
10. उपरिवृत
– पृ. - 115
11. उपरिवृत
– पृ. - 61
12. उपरिवृत
– पृ. - 57
13. उपरिवृत
– पृ. - 89
14. उपरिवृत
– पृ. - 101
15. उपरिवृत
– पृ. - 69
16. उपरिवृत
– पृ. - 37
17. उपरिवृत
– पृ. - 51
18. उपरिवृत
– पृ. - 39
19. उपरिवृत
– पृ. - 53
20. उपरिवृत
– पृ. - 41
21. उपरिवृत
– पृ. - 67
22. उपरिवृत
– पृ. - 31
23. उपरिवृत
– पृ. - 105
24. उपरिवृत
– पृ. - 121
25. उपरिवृत
– पृ. - 35
26. उपरिवृत
– पृ. - 73
27. उपरिवृत
– पृ. - 69
28. उपरिवृत
– पृ. - 47
29. उपरिवृत
– पृ. - 45