Monday, 31 October 2016

अन्वेषी पत्रिका में प्रकाशित : साहित्य में नारी का अभिव्यक्ति पक्ष



(साहित्य में नारी का अभिव्यक्ति पक्ष)
सुबोध कुमार सिंह

साहित्य का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जो मनुष्य के व्यापक संदर्भों का स्पर्श करने वाला और यथार्थ जीवन की गत्यात्मकता के अधिक निकट होने के कारण मानव चरित्र और उसकी समस्याओं और स्वीकृतियों को यथार्थ रूप में अंकित कर सकता है । जीवन के विविध क्षेत्रों की भांति साहित्यिक क्षेत्र में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान है । वैदिक काल के उपरान्त रामायण, महाभारत, बौद्ध तथा मध्यकाल से गुजरती भारतीय नारी की सामाजिक यात्रा अद्यतन काल तक पहुंचने तक अनेक उतार चढ़ाव देख चुकी है । प्राचीन काल से नारी के संबंध में पुरूष साहित्यकारों द्वारा ही विविध रूपेण प्रस्तुतियाँ होती थीं । शनै: शनै: मध्यकालीन अंधविश्वास, अशिक्षा तथा रीढ़ियों से मुक्त होती गई नारी ने हाथ में कलम थाम ली और अपनी तथा परिवेश की मीठी कड़वी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देने लगी । उषा मित्रा के पूर्व के साहित्यकारों ने नारी के परिवेश, मानसिकता, अन्तर्द्वन्द्, आह्लाद और संवेदना, उसके बहिरंग और अंतरंग का चित्रांकन पुरूष साहित्यकारों द्वारा होता था, पर वर्तमान समय में नारी के द्वारा नारी का दृष्टिकोण देखने से विविध युगीन संदर्भ अभिव्यक्त होने लगे हैं ।
नारी एक ज्वलंत विषय के रूप में प्राचीन काल से ही किसी न किसी बहाने, प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचर्चा का बिन्दु रही है - समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए भी । तथापि पिछले 60-65 वर्षों से यह स्त्री विमर्श, "नारी मुक्ति आन्दोलन" के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है जिसे यूरोप में अस्तित्ववादी चिन्तक सीमोन-दि-वाउवा और अमेरिका में बेट्टी फ्रीडन जैसी प्रतिभाशाली और नारी अधिकारों की प्रखर प्रवक्ताओं से इस "नारी मुक्ति आन्दोलन" को पर्याप्त बल मिला और वैचारिक आयत के रूप में यह आन्दोलन अपना विस्तार करता हुआ पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य वेश-भूषा और पाश्चात्य सोच का स्वरूप धारण कर इस देश के युवा वर्ग में लोकप्रिय हुआ जिसे न्यूनाधिक समर्थन समाज से भी मिला एक समानांतर नवीन वैचारिक चिंतन, लेखन और राजनीतिक स्तर पर, साथ ही क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्चस्वर उठते रहे और लगभग दो दशक से यह विमर्श "नारी सशक्तिकरण" के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का प्रमुख बिन्दु रहा है जिसमें किशोर मनोविकृति ने आग में घी का कार्य किया । यह स्त्री विमर्श अब अपने परंपरागत स्वरूप तक ही सीमित न रहा, सत्ता की राजनीति ने इसे संसद में भी गुंजायमान कर दिया और दिल्ली की "दामिनी प्रकरण" से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी। भविष्य की फसल वर्तमान के बीज में गुम्फित होती है, अतएव भविष्य की योजनाओं और परिकल्पनाओं की एक भावी योजनाओं की रूपरेखा सर्वत्र अब एक आकार लेती दिखाई देने लगी है समाज में भी, राजनीति में भी और साहित्य में भी।
वर्तमान समय में नारी भी साहित्य विद्या के माध्यम से जीवन से संबंधित विविध क्षेत्रों के परिप्रेक्ष्य, अपने जीवन की कथावस्तु में अनुस्यूत वातावरण, पात्र तथा परिस्थितियों के संदर्भ में करने लगी । नारी लेखिकाओं की सान्द्र स्वानुभूति तथा मानवीय जीवन के विभिन्न सरोकार एक दूसरे से घुलमिल कर हिंदी साहित्य के पन्नों पर जिस रूप में अवतीर्ण हुए, वे रूप हिंदी साहित्य विधा के लिए नवीन तथा स्वागत योग्य हैं । जीवन और जगत से संबंधित प्रत्येक घटना, विचार वस्तु और भाव इन नारी साहित्यकारों का कथ्य है । पुरूष साहित्यकारों की तुलना में नारी साहित्यकार नारी जीवन से संबंधित मर्मस्पर्शी बिन्दुओं को पहचानने और महत्त्व देने में स्वाभाविक रूप से ज्यादा सफल हुई हैं ।
साहित्य का सम्पूर्ण पक्ष नारी के बाह्य और आन्तरिक अस्मिता की खोज में लगा हुआ है । उनका उद्देश्य नारी के अनेकानेक रूपों का चित्रांकन करना है । नारी के संपूर्ण अभिव्यक्ति पक्ष की प्रस्तुति बहुधा पुरूष साहित्यकारों द्वारा सम्पन्न हुई हैं । वैदिककाल, रामायण काल, महाभारत काल, स्मृति काल, पौराणिक काल, बौद्ध संदर्भ रचना काल के अतिरिक्त संस्कृत साहित्य, अपभ्रंश साहित्य, नाथ-सिद्ध साहित्य, मध्यकालीन संत भक्त तथा रीति साहित्य एवं समकालीन साहित्य में नारी की बाह्य तथा आन्तरिक पक्ष का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है । समाज में नारी के व्यापक तथा बहु आयामी धरातल को दृष्टिपथ पर रखते हुए समकालीन परिस्थितियों से उपजे तथा परम्परा से पोषित बहुत सारे सवाल हैं, जिनका सही-सही उत्तर पुरूष साहित्यकारों की तुलना में नारी लेखनी ही ज्यादा बेहतर दे सकती है । भूमण्डलीकरण से प्रभावित वर्तमान संस्कृति, सर्वत्र विकीर्ण होता वैज्ञानिक आलोक, उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित हो रही नैतिकता तथा नारी में विकसित हो रहा अस्मिता बोध नारी लेखन के माध्यम से नारी साहित्य में विवादित है । नारी की दृष्टि से अनुप्रमाणित होकर ये तत्व भागे हुए यथार्थ की प्रभुविष्णुता के कारण पाठक की चेतना की गहराइयों में प्रविष्ट हो जाते हैं । नारी की अंत:सत्ता की संवेदना से प्रादुर्भूत अनन्त मार्मिक अनुभूतियाँ चेतना को सराबोर कर देती हैं । जीवन के अनेक नये संदर्भ आविर्भूत हुए हैं । इस उपक्रम में नारी लेखिकाओं द्वारा सहज ही ऐसे बहुत सारे कथ्य तलाशे गये हैं, जिनके विमर्श की प्रक्रिया में नारी चेतना की समस्तता तथा परिवेशगत यथार्थ की अभिव्यक्ति को नारी साहित्य में जीवन्त किया जा सकता है । कई बार ये लेखिकायें मर्यादा तथा नैतिकता की लक्ष्मण रेखाएं लांघती प्रतीत होती हैं, किन्तु यही तो कारगर उपाय है, जिसके माध्यम से युगीन यथार्थ के अदृश्य परिवेश प्रकाश में आ सके । उषा प्रियबंदा, निरूपमा सोबती, गौरापन्त शिवानी, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, सुमति अय्यर, क्षमा शर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, सुधा गोयल आदि के साहित्य में नारी का अभिव्यक्ति पक्ष प्रबल रूप में सामने आया है । इन साहित्यकार महिलाओं ने युगीन सामाजिक संदर्भों में नारी अस्मिता के प्रति संवेदनशील रहते हुए अपने अस्तित्व चेतस-स्वरूप का प्रत्यारोपण करने की चेष्टा की है । संबंधित युगीन सामाजिक सरोकारों से सामंजस्य बिठाती अथवा संघर्ष करती नारी के भोगे हुए यथार्थ और आदर्श समाज के प्रति स्वप्निल सृजन धर्मी दृष्टि इन साहित्यकारों का प्रमुख कथ्य है, जिसे विमर्शित करने के लिए इन साहित्यकारों ने प्राणवन्त शब्दों से ओत-प्रोत भाषा को शिल्प और शैली के नये तेवरों के द्वारा प्रस्तुत किया है ।
उपर्युक्त लेखिकाओं और समकालीन रचना धर्मिता को छोड़कर स्पष्ट है की नारी के स्वरूप का चित्रांकन नारी के इतर हाथों से संपन्न हो रहा था । जैसे – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफला: क्रिया ।1 तथा  नारी लरकस्य द्वार:”2  तथा  अवगुन आठ सदा उर रहहीं । नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं ।।3  तथा नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में । पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में ।।4 वही दूसरी तरफ मानव जीवन में नारी की महत्ता को प्रतिपादित करने वाले जयशंकर प्रसाद ने स्त्री-स्वातंत्र्य की वकालत इन शब्दो में की है – तुम भूल गए पुरूषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की ।  समरसता है सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की ।।5  तथा मैथली शरण गुप्त जी कहते हैं - अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी । आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।6 इन सब के साथ ही प्रसिद्ध शायर निदा फाजली ने मां का वर्णनकरते हुए कुछ ऐसी पंक्तियां लिखी हैं जिनमें नारी की सरलता का अदभुत रूप देखने को मिलता है -  
 “बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां  
याद आती है चौका बासन चिमटा फूंकनी जैसी मां ।।
बांट के अपना चेहरा माथा, आंखें जाने कहां गई  
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी मां ।।7
                भारतीय समाज प्रारंभ से ही पुरूष प्रधान रहा है । यद्यपि बहुत कुछ बदलता है, बहुत कुछ अच्छा हुआ है, तो भी बदलती संस्कृति, बदलते मूल्य, बदलती नैतिकता, वैज्ञानिक प्रवृत्ति, वैश्विक संस्कृति का प्रभाव आदि तत्व नारी को अनुकूलता ही नहीं दे रहे हैं, इन सब की मौजूदगी के उल्लास में नारी जब धरती से गगन की यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे बहुत बड़ा आघात भी देते हैं, जब वह महसूस करती है कि आकाश उससे अब भी उतनी ही दूरी पर है । रूढ़ियों, परंपराओं, ऋणात्मक मान्याताओं के कारण धरती का गुरूत्वाकर्षण उसे अंतरिक्ष यात्रा के लिए अनुमति नहीं देता । केवल नारी अंतरिक्ष यात्रा के युग में प्रवेश कर चुकी है इस प्रकार का ऐलान करता है, प्रचार करता है और नारी की पीठ ठोकता है । तब की बात और थी जबकि नारी स्वाधीनता, नैतिकता, वैयक्तिकता तथा स्वाभिमान का अर्थ नहीं जानती थी । आज के जीवन के हर क्षेत्र में उसकी समझ और सहकारिता पुरूष से टक्कर ले रही है । तब नारी जानकर अनजानी की भ्रांति, छल, शोषण, उत्पीड़न, पराधीनता तथा दोहरे मानदंडों का जीवन स्वीकृतिपूर्वक कैसे जी सकती है ? किंतु उसकी कोमल शरीरिक तथा मानसिक संरचना, संवेदनशीलता, समर्पण शीलता उसे निर्भय, क्रूर, स्वार्थी और ह्रदयहीन इस सीमा तक नहीं बनने देते कि परिवेश में उसी स्थापनाओं और स्वीकृतियों का साम्राज्य स्थापित हो सके । नारी संचेतना इस यथार्थ का सूक्ष्म साक्षात्कार करती है और वह अनुभूति की गहराइयों में बैठकर नारी साहित्य के कथ्य का आधार बनती है ।
आधुनिककाल में शिक्षा नीतियों में परिवर्तन, समाजसुधारकों द्वारा किये गये सुधार कार्यों और स्वयं नारी के हौंसलों ने उड़ान भरी और सदियों से शोषित, दमित नारी की मानवी रूप में जीने की आशाएं पल्लवित हुईं नारी-समाज में पुरूष की प्रतिस्पर्धी बनकर नहीं बल्कि उसकी पूरक और सहचरी बनकर जीना चाहती है मात्र जीना ही नहीं चाहती बल्कि सम्पूर्ण विश्व, राष्ट्र समाज, परिवार की प्रत्येक इकाई के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास में अपनी सशक्त भूमिका का निर्वाह भी करना चाहती है। डॉ.बच्चन सिंह ने कहा है -‘‘किन्तु स्त्री-मुक्ति आंदोलन और स्त्रीवादी चेतना के फलस्वरूप नारी जीवन में एक नयी ऊर्जा दिखायी पड़ी, एक नया उन्मेष आया इसका प्रभाव दुनिया भर की लेखिकाओं पर पड़ा 8
साहित्य मानव जीवन का चित्र है । साहित्य का क्षेत्र मनुष्य जीवन के व्यापक संदर्भों को स्पर्श करने वाला और उसकी समस्याओं और स्वीकृतियों को यथार्थ रूप में अंकित करने वाली है । महिला साहित्यकारों को लेखन में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिये अपने समक्ष खड़ी अनेक बाधाओं को पार करना है क्योंकि तथाकथित संभ्रान्त आलोचक वर्ग महिला साहित्यकारों की साहित्यिक जगत में सजग,  दबंग और सराहनीय उपस्थिति को आसानी से  पचा नहीं पा रहा हैं । इस विषय पर चित्रा मुद्गल ने अपनी बेबाक राय देते हुए कहा है -‘‘सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त हिन्दी साहित्यकार एवं मूर्धन्य आलोचक समकालीन सृजन परिदृश्य में महिला रचनाकारों की चुनौतीपूर्ण भागीदारी को  जनाना-लेखन  की संज्ञा देकर उसे अपने से कमतर साबित कर अपनी सदियों पुरानी  उसी सामंती संकीर्ण मानसिकता की लगातार विद्वेषपूर्ण अभिव्यक्ति कर रहे  हैं जिसकी उन्हें आदत पड़ चुकी है।9
सामाजिक स्थितियों पर नजर डाली जाए तो माता की अपेक्षा पिता, पत्नी की अपेक्षा पति, पुत्री की अपेक्षा पुत्र, बहन की अपेक्षा भाई का स्थान ऊँचा है । प्राचीन साहित्य में नारी का अभिव्यक्त पक्ष प्रबलतम् रूप में सामने न आ सका । नारी किसी ऐसी भूमि पर न खड़ी हो सकी, जहाँ उसका स्वतन्त्र अस्तित्व हो । परम्परागत विवाह-पद्धति और प्रेम-सम्बन्धी नये मूल्यों के विषय में डॉ. पुष्पपाल सिंह ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि, ‘‘परिवर्तित सामाजिक परिदृष्य में नारी और पुरूष का विवाह और प्रेम सम्बन्धी दृष्टिकोण आज पूरी तरह बदला हुआ है । आज विवाह का आधार प्रेम या भावात्मक संवेदना, युग-युग के सम्बन्ध की आस्था या विश्वास नहीं है अपितु उसे मात्र एक सामाजिक समझौता साथ रहने की आवश्यकता भर समझा गया है । कुछ कहानीकारों ने विवाह संस्था को ही निरर्थक घोषित किया है ।10  प्रेम और विवाह सम्बन्धी परिवर्तित दृष्टिकोण को साठोत्तरी महिला साहित्यकारों ने कटु यथार्थ रूप में चित्रित किया है । महिला कथाकारों ने विवाह-संस्था के प्रति अनास्था व्यक्त करते हुए इसे एकदम व्यर्थ, मात्र औपचारिक, छलवापूर्ण सम्बन्ध के रूप में अनेक कहानियों में चित्रित किया है । मृदुला गर्ग की एक और विवाह की नायिका कोमल व्यवस्थित विवाह में विश्वास नहीं करती -‘‘मैं व्यवस्थित विवाह में विश्वास नहीं करती । वह विवाह नहीं जबरदस्ती किसी का पल्लू पकड़ लेना होता है । दो कारणों से ऐसा करने की आवश्यकता पड़ सकती है,  आर्थिक अवलम्बन की खोज या शारीरिक भूख।11
समय की धारा प्रवाहशील है, परिस्थितियाँ एक सी नहीं रहती । उसमें परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है । स्वतंत्रता पूर्व हिंदी साहित्य में नारी को घर की चारदीवारी में सीमित रखकर समाज में उसकी स्थिति पुरूषमुखापेक्षी के रूप में चित्रित की गयी हैं । नासिरा शर्मा ने अपनी कई कहानियों में मुस्लिम समाज के खोखले कानून, रूढ़, रीति-रिवाजों, मजहब और पर्दे की चार दीवारी में कैद, पीड़ित, और शोषित नारी के दर्द को बेपर्दा करते हुए उसकी संघर्षशीलता को बयां किया है। इस दृष्टि से खुदा की वापसी‘, ताबूत‘, बन्द दरवाजा‘, बावली‘, ‘पत्थर गली‘, ‘दहलीज‘, ‘नमकदानऔर दूसरा कबूतरकहानियां उल्लेखनीय हैं । दूसरा कबूतर में शहाब जो कि सऊदी अरब में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है, पहले से शादीशुदा और बच्चों का पिता होने पर भी फ़रेब से सानिया से निकाह कर लेता है । वहाँ जब दोनों पत्नियों का आमना-सामना होता है तो वे शहाब को सबक सिखाने का संकल्प लेती हैं -‘‘तलाक देकर शहाब की आधी-आधी जायदाद हम बाँटकर अपनी बेइज्जती का सबक उसे सिखा सकते हैं । दौलत है उसी पर तो सारी इतराहट है । फिर बचेगी सिर्फ तनख्वाह और जमा होगी बूँद-बूँदकर जमा पूंजी........ भूल जाएंगे मियां तीसरा इश्क़ और शादी ।12
साहित्यकारों की कहानियों में नारी विमर्ष से जुड़े प्रश्नों को तलाशने की यात्रा में अनेक प्रश्नों को जन्म देती हैं । समाज के परम्परागत दोयम दर्जे के नागरिक के आवरण से निकल अपनी अस्मिता और अस्तित्व तलाशती नारी घर और बाहर शोषण के दो पहियों के बीच पिसती नारी ? नारी मुक्ति चाहती है तो किससे और क्यों ? क्या पुरूष मानसिकता के बदलाव से समाज में नारी सशक्त हो जायेगी या अभी और संघर्ष कर कई कदम उठाने होंगे अपने वजूद को कायम करने के लिए ? ऐसे अनेकों प्रश्न उठते हैं । दो चेहरे ओढ़कर जीवन जीने वाले समाज में घर और कार्यस्थल के बीच संतुलन बैठाती नारी की पीड़ा । अनेकानेक जटिल प्रश्न अपने कड़े तेवर और तल्ख सच्चाइयों के साथ नारी-विमर्ष पर महिला साहित्यकारों द्वारा लिखे जा रहे साहित्य में कई कोणों के साथ उभर रही है । 
संदर्भ :-
1.      मनुस्मृति – मनु, पृष्ठ- 141
2.      प्रश्नोत्तरी – आदि शंकराचार्य, पृष्ठ – 27
3.      रामचरित मानस (लंका काण्ड के 15 वें दोहे के नीचे की दूसरी चौपाई) तुलसी दास
4.      कामायनी – जय शंकर प्रसाद – श्रद्धा सर्ग
5.      जयशंकर प्रसाद- इड़ा - कामायनी, पृष्ठ -  53
6.      यशोधरा – मैथली शरण गुप्त, पृष्ठ – 40
7.      शायर निदा फाजली – की पंक्तियाँ – माँ का वर्णन
8.      डॉ. बच्चन सिंह-हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृष्ठ – 493
9.      चित्रा मुद्गल-संवाद और हस्तक्षेप,  जुलाई 1996
10.   डॉ. पुष्पपाल सिंह-समकालीन कहानी: युगबोध का संदर्भ, पृष्ठ – 150
11.   मृदुला गर्ग-एक और विवाह-संगति-विसंगति संपूर्ण कहानियाँ 1, पृष्ठ – 28
12.   नासिरा शर्मा, दूसरा कबूतर-खुदा की वापसी, पृष्ठ - 130-131


(सुबोध कुमार सिंह)

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