“आचार्य हजारीप्रसाद
द्विवेदी के निबंधों की भाषा-शैली”
शोधार्थी :
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सुबोध कुमार सिंह, भाषाविज्ञान
विभाग लखनऊ
विश्वविद्यालय, लखनऊ
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शोध-विषय
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‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन’
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वर्तमान पता :
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मकान सं.- सी-48, ब्लॉक-4
आयकर कलोनी, एच.एम.टी. वॉच फैक्टरी के निकट, जालहल्ली, बेंगलूरु, कर्नाटक – 560019
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ई-मेल :
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संपर्क नं. :
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8762300617 एवं 8971914701
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निबंध गद्य की केंद्रीय विधा है । हिंदी निबंध आधिनुक युग की देन है । निबंध व्यक्ति एवं समाज की मानसिक चेतना और भावानुभूति की निर्बंध अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है । निबंध में निबंधकार के विचार एवं उसका व्यक्तित्व निहित होता है । निबंध में भावना के साथ विचारों को पिरोया, बाँधा, बुना या संकलित किया जाता है । इसे लेख से कम व्यापक समझा जाता है । निबंध के समानार्थी यह वह गद्य रूप है जिसमें किसी विषय, किसी प्रसंग पर विचार व्यक्त किए जाते हैं । निबंध के बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत है – “यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है । भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सर्वाधिक संभव है । निबंधों से ही भाषा की शिथिलता और अयोग्यता दूर होती है ।”1
आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक व्यक्तित्व बहुमुखी है । वे न केवल समर्थ, सशक्त तथा युग
प्रवर्तक आलोचक थे, बल्कि बहुत ही परिमार्जित, गंभीर और सुसंगठित शैली के प्रतिपादक माने जाते हैं । अनेक पारखी
विद्वानों ने ‘शतकोणिक व्यक्तित्व’, ‘बहुआयामी साहित्यिक व्यक्तित्व’ अथवा ‘संस्कृतिमय अपनी विद्वता से भव्य, आकर्षक, कलात्मक, विलक्षण व्यक्तित्व’
की संज्ञा दी है । उनकी भाषा ने शैली को भावगत व्यंजना, सुष्ठु
एवं प्रौढ़ता भी प्रदान की है । आचार्य जी ने जो कुछ भी लिखा है, वह स्तरीय एवं प्रासांगिक है । कठिन से कठिन भावों व विचारों को उजागर
करते समय ऐसा लगता है कि शब्द अपने आप उनके पास चलते आते हैं । भाषा द्विवेदी जी
के भावों एवं विचारों को प्रकट करने में पूर्ण समर्थ, सक्षम
एवं सशक्त है । प्रतिकूल परिस्थितियों में होते हुए भी द्विवेदी जी ने विपुल,
गहन और समृद्ध साहित्य का निर्माण किया । इस अतुलनीय कार्य के पीछे
उनका ‘कुटज’ जैसा व्यक्तित्व था । उनके
साहित्यिक चिंतन का मूलाधार मनुष्य है । अपने सारे भावों-अभावों एवं हास्य-रुदन के
साथ जीता जागता मनुष्य । उनका मूल मंत्र था- न मनुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित ।
द्विवेदी जी ने निबंधों में जिस भाषा-शैली का प्रयोग किया है, वह अर्थ एवं शैली के नजरिए में पूर्ण रूप से समर्थ एवं सक्षम है । आचार्य
द्विवेदी जी का पांडित्य इनके निबंधों में अत्यंत सहज-सरल बनकर प्रकट हुआ है ।
निबंधकला की दृष्टि से हिंदी-निबंधकारों में इनका स्थान बहुत ऊंचा है । द्विवेदी
जी की भाषा में भाषण-शैली का प्रवाह और ओज है । द्विवेदी जी का भाषा पर पूर्ण
अधिकार है । विषयानुकूल भाषा उनकी विशेषता है । अपनी संस्कृतनिष्ठ भाषा के होते
हुए भी वे आवश्यकतानुसार देशी विदेशी शब्दों के प्रयोग से नहीं चूकते हैं ।
उन्होंने शब्दों के मर्म को पहचान कर मनचाहा अर्थ सम्प्रेषित कराया है । इस प्रकार
द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के ऐसे अध्येता हैं जिनमें सर्जन शक्ति की नूतनता,
चिंतन की गम्भीरता, पुरातन और नूतनता का
समन्वय है ।
भाषा केवल
ह्रदय की वस्तु नहीं बल्कि वह संस्कृति, संस्कार व राष्ट्र के निर्माण का
सेतु होती है । बिना भाषा एवं भाषाई चेतना से सुंदरतम अवयव भी ‘जड़त्व’ व ‘शवत्व’ का बोध ही करा सकता है । ज्ञान-विज्ञान रूपी
कंकाल में प्राण का संचार तभी होता है जब उसमें भाषाई संस्कारों की
प्राण-प्रतिष्ठा होती है । भाषा चेतन स्वरूप ज्ञान-विज्ञान बनकर मानवता के कल्याण एवं
विकास में सहायक होती है । भाषा जहाँ साहित्य संकल्पना की पूर्ती में सहायक है,
वहीं वह समाज, व्यक्ति और विचार में अमूल-चूल
परिवर्तन करने में सहायक है । भाषा के बिना संवेदना की अभिव्यक्ति मुखर नहीं हो
सकती । खंडित मनों को नैसर्गिकता से जोड़ने का साधन है भाषा । डॉ. श्यामसुंदर के
अनुसार- “भाषा ऐसे
सार्थक शब्दों का समूह है जो एक विशेष क्रम में व्यवस्थित होकर मन की बात दूसरे के
मन तक पहुँचाने और उसके द्वारा उसे प्रभावित करने में समर्थ होती है । अतएव भाषा
का मूलाधार शब्द हैं जिन्हें उपयुक्त रूप से प्रयुक्त करने के कौशल को ही शैली का
मूल-तत्व समझना चाहिए, अर्थात किसी
लेखक या कवि की शब्द-योजना, वाक्याशों का
प्रयोग, वाक्यों की बनावट और
ध्वनि आदि का नाम ही शैली है ।”2
साहित्यिक भाषा का वास्तविक प्रयोजन विचारों एवं
अनुभूतियों को अधिक से अधिक स्पष्ट, बोधगम्य तथा
प्रभावोत्पादक रूप में प्रकट करना है । लेखक जहाँ भाषा की परम्परागत शक्ति का
उपयोग करता है, वहीं वह उसकी जीवन्तता, सहजता और नवीनता को भी समेटता है । साहित्य में शैली
अथवा कला-पक्ष एवं भाव-पक्ष का समान महत्त्व होता है । एक के अभाव में दूसरे का
प्रभाव नगण्य है । रूपगत और भावगत सौंदर्य एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं । इस संबंध
में प्राय: सभी विद्वान एक मत नहीं
हैं । अंग्रेजी विद्वान फलाबर्ट ने साहित्य के रूप और भाव-पक्ष दोनों को एक मानते
हुए भी विचार का महत्त्व अधिक स्वीकार्य किया है । उनका कथन है कि- “रूप और भाव मेरे लिए एक ही हैं । मैं नहीं जानता एक के
बिना दूसरे का क्या अस्तित्व है । भाव जितना सुंदर होगा, निश्चित रूप से वाक्य भी उतना ही सुंदर होगा ।”3 एक और विद्वान आर.एल.स्टीबेन्सन ने शैली को ही
साहित्यिक कौशल की नींव कहा है- “रचनात्मक
खण्ड या अनुकृति जो एकदम सुखद और तर्क-सम्मत हो, एक परिमार्जित और सारगर्भित विन्यास शैली कहा जाता है, वही वास्तविक कौशल की नींव है ।”4
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी जिस भाषा का प्रयोग करते
हैं, सामान्यत: वह भाषा प्रचलित जन-जीवन के अनुकूल, बोधगम्य और सही है । वह इतनी अधिक स्पष्ट एवं प्रांजल है
कि अर्थ बिना प्रयास के ही पाठक के सामने उपस्थित हो जाता है । उसमें वे कभी-कभी
क्लिष्ठ, दुरूह, अस्पष्ट, विषयगत एवं
सामान्य शब्दावली का प्रयोग करते हैं, लेकिन बड़ी
ही चतुरता से । यह प्रयोग पाठकों पर बोझिल नहीं होता है । उनकी भाषा में नवीनता
एवं निजीपन के कारण शैली सहज, सरल और
स्वाभाविक बन जाती है । उन्होंने स्वयं कहा है कि- “भाषा वस्तुत: वक्तव्य
वस्तु का वाहन है । हम क्या कहना चाहते हैं, यही मुख्य बात है; कैसे कहना
चाहते हैं, यह बाद की बात है ।”5 द्विवेदी जी ने अपने
निबंध साहित्य में मुख्यत: हिंदी के
खड़ी बोली के प्रचलित रूप को अपनाया है । खड़ीबोली के क्लिष्ठ शब्दों के साथ-साथ
उन्होंने अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू और देशज शब्द से युक्त बोलचाल की सरल, सहज भाषा का प्रयोग किया है । जिसकी सरसता, मनोरंजकता एवं रोचकता के कारण पाठकों के ह्रदय पर अपने
विचारों का मनोवांछित प्रभाव डालने में सफलता प्राप्त की है । निबंधों में
पात्रानुकूल भाषा के विविध रूपों को भी व्यवहार में लिया गया है । इससे इनकी
भाषा-शैली में भावाभिव्यंजकता और अधिक प्रभावोत्पादक हो गयी है- “क्षण भर मेरे सामने मध्ययुग की भयोभूय: पद-धवस्त भारतीय संस्कृति जादू-भरी मूर्ती खेल गई । वह
ब्राह्मण संस्कृति नहीं थी, श्रगण
संस्कृति नहीं थी, राजस्व
संस्कृति नहीं थी, शास्त्रीय
संस्कृति भी नहीं थी । वह संपूर्ण हिन्दू जाति की एक केन्द्रा संस्कृति थी-अपने आप
में परिपूर्ण, तेजोमयी, जीवन्त ! जो पण्डित
जी की हाँ-में-हाँ मिला रहे है ।”6
निबंधों में विचार-प्रधान गंभीर शैली के साथ-साथ सामाजिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक
आदि समायोजनों को धरातल पर उतारा गया है । भाषा में उनकी विचार गत धारणा बहुत ही
व्यवस्थित और सुस्पष्ट एवं प्रधान है । अर्थ-संपदा, परिष्कृत, प्रौढ़ता और
संपुष्टता की दृष्टि से अनुठे हैं । ऐसा लगता है कि भाषा और व्याकरण के नियम मिलकर
एक हो गये हैं । भाषा में कसाव, घनत्व, सघमता, संक्षिप्तता
ऐसी है कि वाक्य की रचना से शब्दों को अलग नहीं किया जा सकता है । शब्दों को
वाक्यों में बहुत ही सरलता के साथ पिरोया गया है जिससे उन्हें वाक्यों से अलग नहीं
किया जा सकता है । इसी कारण वाक्य एक अटूट बंधन में बंधे हैं । वाक्यों में जीवन
का गहन चिंतन और अनुभव समाया हुआ है- “राजनीतिक
पराधीनता बड़ी बुरी वस्तु है । वह मनुष्य को जीवन यात्रा में अग्रसर होने वाली
सुविधाओं से बंचित कर देती है ।”7,“घर जोड़ने की माया बड़ी
प्रबल होती है और संसार का कोई बिरला ही इसका शिकार होने से बच सकता है ।”8, “सत्य प्रकाश-धर्मा है । वह छिपाकर रोक नहीं रखा जा सकता । कुछ लोग ऐसे होते
हैं, जो समझते हैं कि
प्रत्येक नया विचार सनातन प्रथा को बरबाद कर देगा – संस्कृति को रसातल में पहुँचा देगा ।”9
इस प्रकार इन छोटे-छोटे वाक्यों से द्विवेदी जी ने
शाश्वत सत्य का प्रमाण दिया है, जो अपने आप
में पूर्ण है । यहाँ पर द्विवेदी जी ने सूत्रात्मक वाक्यों की समाहार शक्ति का
उत्कृष्ट परिचय दिया है । शब्द और अर्थ का इतना सुंदर समायोजन और सामंजस्य हिंदी
निबंध साहित्य में अन्य कहीं मिलना विरल प्रतीत होता है । द्विवेदी जी वस्तुत: भाषा को सँवारने, सजाने अथवा पाठक को अभिभूत करने के लिए सरस एवं उक्ति वैचित्र्य भाषा-शैली
का प्रयोग करते हैं । कई बार पात्रों के चरित्र उजागर करने एवं अपने विचारों को
अत्यधिक प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए भी वह इस प्रकार की भाषा का
प्रयोग करते हैं । तब यह भाषा सरल बोलचाल की भाषा से साहित्यिक भाषा के निकट पहुँच
जाती है- “मर जाये तो मर जाने दो; मुझे परवा नहीं । जो तीन लोक से न्यारे हैं, उनका न रहना ही अच्छा है । उनके रहने से बाकी दुनिया को
कष्ट होगा ।”10 प्राय: यह कहा जाता है कि
द्विवेदी जी की साहित्यिक भाषा जन-जीवन से दूर विशिष्ट स्तर की भाषा है, उसमें कृत्रिमता है । परन्तु द्विवेदी जी ने अपने
विचारों को स्पष्ट किया है । वे अपने सूक्ष्म भावों का विश्लेषण भावों के मध्य
अंतर से समझाते हैं । द्विवेदी जी कई स्थानों पर समास-शैली को अपनाते हैं । इससे
उनकी भाषा अत्यंत गंभीर, गहन, संस्लिष्ट, विचारपूर्ण
और व्यंजनात्मक हो गई है- “यह ठीक है कि
पाणिनी की संतान आज हींग बेचती है और कुमारजीव के सगे संबंधी आज सीमांत के हिन्दुओं
की बहू-बेटियों का व्यवसाय करते हैं और इस बात को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि
कालिदास की विरहा भूमि में आज ऐसी सभ्यता (या बर्बरता) का ताण्डव हो रहा है जो
चित्त को मथे बिना नहीं रह सकता, फिर भी भरोसा
यह है कि वह रक्त बचा तो है ।”11
द्विवेदी जी की भाषा उसी प्रकार बहती जाती है जिस प्रकार
से नदी की धारा शांत रूप से प्रवाहित होती है और अपने पिछे अनेक प्रभावों के
छोड़ती चलती रहती है । उनकी भाषा का उद्देश्य अपने विचारों एवं भावों को स्पष्ट
रूप से मूर्त रूप देना है । भाषा में सामान्य शब्दों के प्रयोग से निबंधों में
जीवन्तता का नित-नूतन वैभव उच्छलित होता प्रतीत हो रहा है । यह कथन सर्वथा समीचीन
प्रतीत होता है कि सामान्य भाषा व्याकरण धार्मिता का निर्वाह करती है । कतिपय
विचारकों का मन्तव्य है कि साहित्यिक भाषा और सामान्य भाषा में किसी प्रकार का
अंतर नहीं है । किंतु व्यवहारिक धरातल पर इस मान्यता को सत्य नहीं ठहराया जा सकता
है । द्विवेदी जी जब गंभीर विचारों का वर्णन करते हैं तो उनकी भाषा तत्सम शैली
प्रधान हो जाती है क्योंकि सामान्य भाषा या बोलचाल की भाषा में इसे वर्णित नहीं
किया जा सकता है । लेकिन जब उन्हें अपने चिंतन को कथा या संस्मरण रूप में प्रस्तुत
करना होता है तो भाषा सहज, सरल और सुबोध
हो जाती है- “संस्कृत भारतवर्ष की
अपूर्व महिमाशाली भाषा है । वह हजारों वर्षों के दीर्घकाल में और लाखों वर्गमील
में फैले हुए मानव-समाज के सर्वोत्तम मस्तिष्कों में विहार करने वाली भाषा है ।
उसका साहित्य विपुल है ।”12, “हम लोग आज
अपने जल्दी लिखे हुए उथले विचारों को छपा डालने के लिए हास्यापद ढंग से व्यग्र हो
जाते हैं । कभी-कभी पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर कविता छापने के लिए मजेदार
लड़ाइयाँ भी हो जाती हैं ।”13
वर्णों के संयोजन मात्र से उनमें अर्थ की क्षमता नहीं आ
जाती । संयोजन स्वेच्छा से किया गया हो या यादृष्टा से, अर्थ देने की क्षमता उसमें नहीं आती । इसके लिए सामाजिक स्वीकृति अनिवार्य
होती है । अवसर एवं प्रसंग के अनुकूल द्विवेदी जी ने भावों में स्पष्टता एवं
अभिव्यंजना लाने के लिए तत्सम, तदभव, देशज, संस्कृत, उर्दू और अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों का उत्कृष्ट एवं
सजीव प्रयोग किया है । अपने भावों को स्पष्ट करने के लिए जब उन्हें शब्द नहीं
मिलते हैं तो वे अन्य भाषाओं के शब्दों को प्रयोग में लाते हैं । जिससे विचारों
एवं भावों में जीवन्तता आ जाती है और वे प्राणवान हो उठते हैं । कहीं-कहीं अनुदित
शब्दावली का प्रयोग किया गया है जिससे हिंदी साहित्य की शब्दावली को समृद्धता
प्रदान हुई है- “कोमल हाथों
में अशोक पल्लवों का कोमलतर गुच्छ आया, अलक्तक से
रंजित नुपुरमय चरणों के मृदु आघात से अशोक का पाद-देश आहत हुआ नीचे हल्की
रुनझुन और ऊपर लालफूलों का उल्लास ।”14 इसमें तदभव शब्दों को चिन्हित किया गया है । “भावावेश में लोग दरविगलित नेत्रों
में महाविष्णु का स्मरण करते हैं ।”15 यहाँ पर द्विवेदी जी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है
। “जो लोग आज भी यह सोचते
हैं कि साहित्य के लिए कुछ खास-खास विषय पढ़ने योग्य हैं, वे बड़ी गलती करते हैं ।”16 इस वाक्य में ‘खास-खास’ शब्द का प्रयोग हुआ है
जोकि देशज भाषा का शब्द है । “आदिम-युग से
मनुष्य छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए लड़ता आया है, काम-क्रोध का गुलाम बना रहा है ।”17 उक्त वाक्य में ‘गुलाम’ शब्द का प्रयोग किया
गया है । यह शब्द उर्दू से हिंदी में आया है । इसके प्रयोग ने वाक्य में व्यंजना
को जन्म दिया है । “इस समस्या का
नाम है ‘नेशनैलिटी’ ।”18 उक्त वाक्य में अंग्रेजी के शब्द का प्रयोग हुआ है । यह
विदेशी भाषा है । “उन दिनों ‘श्री सुन्दरीसाधनतत्परांणा योगश्य भोगश्च करस्थ एव’ की महिमा प्रतिष्ठित हुई है ।”19 इस वाक्य में संस्कृत के वाक्यांश का प्रयोग किया गया
है । द्विवेदी जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ होने के कारण उनके सभी निबंधों में संस्कृत
की शब्दावली का सहज प्रयोग मिलता है । अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए वे
संस्कृत से उदाहरण लेते हैं और उसे सहज शैली में ढालकर पाठकों के सामने प्रस्तुत
करते हैं । विविध भाषी शब्दों के प्रयोग से उनकी भाषा-शैली को कसाव मिलता है जिससे
पाठकों में रोचकता उत्पन्न होती है ।
आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी इतिहास, मनुष्य और लोक को केंद्र में रखकर भाषा समस्या पर मौलिक
चिंतन करने वाले लोकवादी भाषा चिंतक और भाषा नियोजक भी हैं । आचार्य द्विवेदी जी ने अपने निबंध साहित्य की भाषा में अधिककाधिक कसावट
लाने के लिए यथास्थान सुंदर और सटीक मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग किया है ।
जिसके कारण कठिन से कठिन विषय भी पाठकों के लिए सहज, सरल, रुचिकर और बोधगम्य बन
गये हैं । इनमें अर्थ को पूर्ण रूप से समाहित किया गया है । जिसके कारण वे
प्राणवंत, विस्तृत तथा उत्कृष्ठ बन
गये हैं । द्विवेदी जी ने जगह-जगह स्थान और समय के साथ विस्तृता लाने के लिए भी
इनका सुंदर प्रयोग किया है । जिससे भाषा-शैली में अभिव्यंजना एवं चमत्कार उत्पन्न
हो गया है ।
1. रोगी को सवा भर घी खिला दिया जाए ।20
2. इस कार्य में आप हाथ-पर-हाथ धरे बैठ नहीं सकते, और ‘क’ नहीं तो ‘ख’ इस कार्य को कर ही लेगा ।21
3. गड्डा खोदने वाले को कुँआ तैयार ही मिलता है ।22
4. कच्चे धागे के समान टूट गया ।23
5. दिन-दुनी रात चौगुनी ।24
6. उच्छृंखलता पशु की प्रवृत्ति है ।25
अपनी अनुपम वाक्य योजना के कारण द्विवेदी जी के निबंध हिंदी साहित्य में
उत्कृष्ठ एवं विशेष स्थान रखते हैं । सूत्रात्मक भाषा-शैली का प्रयोग करते समय
वाक्यों में सरल एवं बोधगम्य भाषा का प्रयोग करते हैं । इससे कई बार वाक्यों के
पदों में बदलाव आ जाता है जिसमें कभी क्रिया पहले और कभी संज्ञा बाद में आती है ।
वाक्यों को स्पष्ट करने के लिए सरल, मिश्रित एवं
संयुक्त वाक्यों का बड़ी सरलता, सहजता से
प्रयुक्त किया है । यथार्थता का रक्षा के लिए कलात्मक आग्रह विद्यमान है । आचार्य
द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के उच्च कोटि के निबंधकार एवं आलोचक व इतिहासकार हैं ।
उनके निबंध साहित्य में हास्य, व्यंग्य एवं
विनोद के साथ-साथ समझाने-बुझाने, विनय एवं
तर्क-शक्ति को उजागर किया गया है । द्विवेदी जी सुधारात्मक एवं विनोदात्मक ढंग से
प्रभावोत्पादकता लाने के लिए गंभीर विचारों के माध्यम से हाथ से हल्के छींटों का
प्रयोग करते हैं ।
द्विवेदी जी के निबंध साहित्य में भाषा-शैली के विविध रूप उपलब्ध हैं ।
भाषा का बहाव विषयानुकूल रहा है । आपने अपने निबंध साहित्य में खड़ी बोली का
प्रयोग करने के साथ-साथ अन्य भाषाओं के संभव रूपों का यथास्थान प्रयोग किया है ।
गंभीर विश्लेषण के लिए संस्कृतनिष्ठ भाषा का और स्पष्टीकरण के लिए सामान्य बोलचाल
की भाषा का प्रयोग मिलता है । प्रत्येक शब्द जिस अर्थ को अभिव्यक्त करता है, वह सामान्य अर्थ होता है ।
परंतु संवेदनशील रचनात्मक साहित्यकार, सामान्य अर्थों से संतुष्ट नहीं होता
। वह सामान्य अर्थों को व्यक्त करने वाली भाषा के माध्यम से ही अपनी विशिष्ट
अनुभूतियों को लोकचित्त में संप्रेषित करने के लिए व्याकुल रहता है । उन्होंने
परंपरा और इतिहास-बोध की सहायता से समसामयिक भाषा-समस्या को भी सुलझाने के सूत्र
अपने निबंधों में दिए हैं- “हिंदी भाषी प्रदेशों के बाहर हिंदी
का प्रचार हो रहा है और भविष्य में और भी तेजी से होगा । इस भाषा प्रचार का
उद्देश्य देश की एकता को बनाए रखना है । हमारे इस देश की कई प्रादेशिक भाषाओं में
बहुत समृद्ध साहित्य है ।”26
आचार्य
हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के निबंध साहित्य में सरस अभिव्यक्ति से लेकर विचार
प्रधान गंभीर शैली के समस्त रूप उनमें विद्यमान हैं । भाषा में कलात्मक रुचि और
यथार्थवादी ढंग का संकेत मिलता है । विषय, भावों, विचारों, वाक्यों, व्यंग्य-विनोद
का रसात्मक मिश्रण एवं शब्द व अर्थ के प्रति ऐसी जागरुकता शायद ही हमारे हिंदी
साहित्य के किसी निबंधकार में मिल सके । उन्होंने शब्दों का गूढ़ अध्ययन किया, फिर उन्हें
इस प्रकार से अपनी निबंध-माला में पिरोया है कि एक भी शब्द को इधर से उधर करने पर
वाक्य के अर्थ का अनर्थ हो जाए । वे वास्तव में हिंदी निबंध साहित्य में वाक्यों
के जड़िया हैं । द्विवेदी जी की भाषा व्याकरण सम्मत है । संपूर्ण निबंधों में कहीं
पर भी व्याकरण का उल्लंघन नहीं दिखाई पड़ता है । एक-एक शब्द, वाक्य, वाक्यांश, अनुच्छेद आदि
सभी व्याकरण की कसौटी पर पूर्ण रूप से खरे उतरते हैं । द्विवेदी जी की भाषा बहुत
ही प्रौढ़, प्रांजल, परिष्कृत, संस्कृतनिष्ठ, परिमार्जित, परिनिष्ठ, परिपक्व एवं
सरस व सुबोध है । इस प्रकार की भाषा के कारण ही उनका निबंध साहित्य सजीव एवं
प्रवाहवान हो गया है । साहित्यिक सर्जनात्मकता की अनुभूति के कारण भाषा में सुंदर
समन्वय और निखार आया है । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि द्विवेदी जी के
निबंध साहित्य में विभिन्न भावों की निष्पत्ति के लिए भाषा-शैली का उचित प्रयोग
दर्शनीय है । इसीलिए वे हिंदी साहित्य जगत के सफल रचनाकार एवं उच्चकोटि के साहित्यकार
माने जाते हैं और माने जाते रहेंगे ।
संदर्भ-सूची
1.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का
इतिहास, पृष्ठ- 1
2.
डॉ. श्यामसुंदर दास, साहित्य लोचन, पृष्ठ- 250
3.
Form and content to me
are one. I don’t know what either is without other. The finer the idea, be suit
the finers so sounding the sentence. Quoted from Novelists on the Novel, Miriam
Allott – Page- 3
4.
The web, then or the
pattern, a web at once sensuous and logical, an elegant and pregnant texture,
that is style is the foundation of the art of literatures. Ibid, Page- 319
5.
हजारीप्रसाद
द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला
जैन, सहज भाषा का प्रश्न, पृ. 176
6.
हजारीप्रसाद
द्विवेदी-संकलित निबंध, संपादक-नामवर
सिंह, ठाकुरजी की बटोर, पृ. 41
7.
अशोक के फूल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, साहित्यकारों का दायित्व, पृ. 132
8.
उपरिवृत, घर जोड़ने की माया, पृ. 31
9.
वही, रवीन्द्रनाथ के राष्ट्रीय गान, पृ. 114
10.
हजारीप्रसाद द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, ठाकुरजी की बटोर- पृ. 33
11.
हजारीप्रसाद द्विवेदी-संकलित निबंध, संपादक-नामवर सिंह, जबकि दिमाग खाली है-पृ. 40
12.
हजारीप्रसाद द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है- पृ. 70
13.
अशोक के फूल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, संस्कृति और
साहित्य- पृ. 87
15.
हजारीप्रसाद द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, ठाकुरजी की
बटोर- पृ. 31
16.
उपरिवृत, मनुष्य ही साहित्य का
लक्ष्य है- पृ. 78
17.
उपरिवृत, हिंदी और अन्य भाषाओं
का संबंध- पृ. 178
18.
उपरिवृत, संस्कृति और साहित्य-
पृ. 41
19.
अशोक के फूल, हजारीप्रसाद
द्विवेदी, अशोक के फूल- पृ. 15
20.
हजारीप्रसाद ग्रंथावली, भाग-10, मनुष्य की सर्वोत्तम
कृति है : साहित्य- पृ. 21
21.
उपरिवृत, साहित्यकारों का दायित्व- पृ. 100
22.
उपरिवृत, राष्ट्रीय संकट और हमारा दायित्व- पृ. 421
23.
उपरिवृत, छब्बीस जनवरा : गणतंत्र
दिवस- पृ. 441
24.
उपरिवृत- पृ. 442
25.
हजारीप्रसाद द्विवेदी-निबंधों की दुनिया, संपादक-निर्मला जैन, नाखूल क्यों बढते हैं ?- पृ. 28
26.
उपरिवृत, हिंदी और अन्य भाषाओं का संबंध- पृ. 184
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