सुबोध कुमार सिंह
राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषाः
हिंदी
भारत एक विविधताओं से परिपूर्ण राषट्र होते हुए भी अपनी
एकल-सांस्कृतिक-चेतना के लिए विश्वविख्यात हैं । हमारी संस्कृति किसी धर्म या जाति
की नहीं, अपितु हमारे भारतीय होने की द्योतक है । किसी भी संस्कृति के चार
स्तंभ-राष्ट्रबाद, भाषा, आचार-विचार एवं परम्पराएं एक रथ के चार पहियों की तरह
होते हैं । किसी भी देश की सांस्कृतिक विशेषताएं उसकी भाषा में ही संचित होती है ।
हिंदी और इसकी बोलियाँ उत्तर
एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं । भारत और अन्य देशों में लगभग 75 करोड़ से अधिक लोग हिंदी बोलते, पढ़ते
और लिखते हैं । फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर और नेपाल की कुछ जनता
हिंदी बोलती है । आज विश्व में हिंदी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है ।
हिंदी राष्ट्रभाषा, राजभाषा, सम्पर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को
पार कर विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है । भाषा विशेषज्ञों की यह भविष्यवाणी, हिंदी
प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर
अन्तरराष्ट्रीय महत्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिंदी भी प्रमुख होगी ।
भारत की भाषायी स्थिति और उसमें हिंदी के स्थान को देखने से यह
स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी आज भारतीय जनता के बीच राष्ट्रीय संपर्क की भाषा है ।
हिंदी की भाषागत विशेषता भी यह है कि उसे सीखना और व्यवहार में लाना अन्य भाषाओं
के अपेक्षा ज्यादा सुविधाजनक और आसान है । हिंदी भाषा में एक विशेषता यह भी है कि
वह लोक भाषा की विविधताओं से संपन्न है, बड़े पैमाने पर अशिक्षित लोचदार भाषा है,
जिससे वह दूसरी भाषाओं में शब्दों, वाक्य संरचना और बोलचालजन्य आग्रहों को स्वीकार
करने में समर्थ है । इसके अलावा ध्यान देने की बात यह है कि हिंदी में आज विभिन्न
भारतीय भाषाओं का साहित्य लाया जा चुका है । विभिन्न भारतीय भाषाओं के लेखकों को
हिंदी के पाठक जानते हैं, उनके बारे में जानते हैं । भारत की भाषायी विविधता के
बीच भारत की भाषायी पहचान मुख्यतः हिंदी है । भारत के औद्योगिक प्रतिष्ठानों के
आधार पर बने नगरों और महानगरों में भारत की राष्ट्रीय एकता और सामाजिक संस्कृति का
स्वरुप देखने को मिलता है । इसी प्रसंग में कहना चाहता हूं कि यदि हिंदी-क्षेत्र
के राज्य औद्योगिक रूप से और ज्यादा विकसित होते तो राष्ट्रीय एकता और भाषायी एकता
का आधार और विस्तृत और मजबूत होता । लेकिन आज की स्थिति में भी भारत में हिंदी की
जो राष्ट्रीय भूमिका है, उतना भी उसके अंतर्राष्ट्रीय महत्व को महसूस कराने में
समर्थ है ।
साम्राज्यवाद ने खुद मनुष्य का जो व्यापार अठारहवीं और उन्नीसवीं
सदी में किया, उसके फलस्वरूप भारत से बड़ी तादाद में मजदूर दूसरे देशों में से जाे
गे । मारिशस, फिजी, दक्षिम अफ्रीका, के अन्य कई देश, व्रिदिश गायना, त्रिनिडाड,
सूरीनाम, न्यूजीलैंड आदि देशों में जो बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग हैं, वे
मुख्यतः हिंदीभाषी हैं अथवा यह कहें कि वे हिंदी जानते हैं, हिंदी पढ़ते-लिखते हैं
। नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार(वर्मा) में तो स्वभावतः हिंदी
भाषी जनता की संख्या बहुत बड़ी हैं आधुनिक युग में नई संचार-व्यवस्था, आवागमन के
नए साधनों की उपलब्धता और जीवन की नई जरूरतों से प्रेरित होकर इंग्लैंड, अमेरिका,
कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस और यूरोप के अन्य अनेक देशों में बी भारत से जा
बसे लोगों में हिंदीभाषी लोग आज रह रहे हैं । हिंदीभाषियों को अथवा हिंदी जानने
वालों की यह विशाल संख्या हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय संपर्क का साक्षात्कार कराती है
। संख्या की दृष्टि से हिंदी दुनिया की तीन बड़ी भाषाओं में एक है, शेष दो हैं
अंग्रेजी और चीनी । कुछ लोग तो कहते हैं कि हिंदी जाननेवालों की संख्या दुनिया में
अंग्रेजी जाननेवालों से ज्यादा है ।
आँकड़ों के खेल से अलग हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय भूमिका को स्थापित
करने वाले कई तथ्य और हैं जो ज्यादा महत्वपूर्ण तथ्य हैं । एक बात तो यह है कि
हिंदी भाषा के साहित्य ने पिछली एक सदी में बड़ी तेजी से विकास किया है, वह कविता,
कहानी, उपन्यास, आलोचना तथा चिंतनपरक साहित्य के क्षेत्रों में इतनी विकसित हुई
है, इतनी ऊपर उठी है, कि आज वह किसी भी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य का मुकाबला कर
सकती है । प्रेमचंद्र, निराला, जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, राहुत
सांस्कृत्यायन, मुक्तिबोध, नागार्जुन आदि के लेखन के अनुवाद दुनिया की विभिन्न
भाषाओं में हुए हैं । इस प्रक्रिया से हिंदी के जरिए दुनिया की जनता से भारत की
जनता का संवेदनात्मक संबंध कायम हुआ है । यह संबंध रचनात्मक और संवेदनात्मक तो है
ही, सांस्कृतिक विनियम का एक रूप भी प्रस्तुत करता है । विगत साहित्य में भारतीय
चेतना का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक हिंदी ही करती है । इतना ही नहीं, हिंदी के
माध्यम से दूसरी भाषाओं के साहित्य का परिचय भी विश्व का हिंदी-संप्रदाय प्राप्त
करता है । यह एक बड़ा कारण है कि दुनियाभर में हिंदी का अध्ययन आज वे लोग भी कर
रहे हैं, जो हिंदीभाषी या भारतीय मूल के नहीं हैं । इस प्रकार आज की परिस्थिति में
हिंदी की एक अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी विकसित हो रही है ।
उपयुक्त तथ्यों और बातों से अलग अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि आज
के वित्तीय पूंजीवाद ने जो विशाल विश्व बाजार विकसित किया है, उसमें भारत का विश्ष
स्थान है । भारत में पूंजीवाद का विकास अवरोधों के बीच हुआ है, फिर भी देश के आजाद
होने के बाद पूर्व सोवियत संघ तथा समाजवादी देशों की मदद से राष्ट्रीय पूंजीवाद का
आर्थिक आत्मनिर्भरता का जो विकास हुआ उससे भारत में एक बड़े मध्य वर्ग और नव
धनाढ्य वर्ग का विकास हुआ है, जिसकी आवादी कम से कम पच्चीस करोड़ है । अमेरिका की
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिनिधियों तथा उसके विचारकों और सिद्धांतकारों ने कुछ
साल पहले भारत के बारे में एक सेमिनार आयोजित करके इस बात पर विचार किया कि भारत
में उनके लिए क्या गुंजाइश है । उनका निष्कर्ष यह था कि भारत मध्यवर्ग, उच्च वर्ग
और नवधनाढ्य वर्ग के पच्चीस-तीस करोड़ लोग उनके माल का बाजार बनने के लिए कापी हैं
। अब यह देखें कि पच्चीस-तीस करोड़ में हिंदीभाषियों की संख्या बीस करोड़ से कम तो
नहीं है । अतः इस जनता को अपने उपभोक्ता बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम
करनेवाली कंपनियों के प्रतिनिधियों एवं एजेंटों को हिंदी सीखनी है । यदि भारत का
इतना आर्थिक विकास न हुा होता, तो हिंदी का रुतबा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इतना न
होता, जितना आज हमें अनुभव होता है । बहुराष्ट्रीय कंपनियां और इजारेदार घरानों को
अपने माल के प्रचार के लिए हिंदी का सहारा लेना बड़ता है । उद्योग का एक बड़ा
क्षेत्र है फिल्म और इलेक्ट्रोनिक जनसंचार माध्यम । हिंदी फिल्म और इलेक्ट्रोनिक
माध्यम में हिंदी चैनल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का प्रसार करके हिंदी के
माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय बाजार बनाने की भूमिका अदा करते हैं । यह है हिंदी की
अंतर्राष्ट्रीय भूमिका का ठोस आधार, जिस पर खड़ी होकर हिंदी अंतर्राष्ट्रीय संपर्क
की भाषा बन रही है । ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के अवशेष और अमेरिकी साम्राज्य
की वर्तमान दबंगई के कारण यह बात फैलाई जाती रही है कि अंग्रेजी विश्व भाषा है या
विश्व बाजार की भाषा है । यह अर्धसत्य है । सच्चाई को यों कह सकते हैं कि अंग्रेजी
एक महत्वपूर्ण विश्व भाषा है और विश्व बाजार की भी एक महत्वपूर्ण भाषा है । लेकिन
विश्व बाजार में संपर्क तो चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, स्पानी के साथ ही
हिंदी के माध्यम से भी होता है । बारत के फैलते हुए बाजार और दक्षिणपूर्व एशियाई
देशों के संगठन की बढ़ती हुई भूमिका की पृष्ठभूमि में हिंदी के महत्व और भूमिका
में भी वृद्धि होती जा रही है ।
वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति के इस दौर में यह उस्सेखनीय है कि
वैज्ञानिक-तकनीकी कर्मियों की संख्या की दृष्टि से दुनिया में भारत का तीसरा स्थान
है । ये तकनीकी कमी दुनिया के विभिन्न देशों में काम करते हैं और हिंदी के प्रसार
की भूमिका अदा करते हैं । लेकिन इस प्रसंग में एक बात और उल्लेखनीय है ।
इलेक्टॉनिक संचार-माध्यम और कम्प्यूटर आदि के उपयोग में हिंदी ने धीरे-धीरे अपनी
जगह बना ली है इससे एक तरफ इन माध्यमों से हिंदी का प्रसार हो रहा है, तो दूसरी
तरफ हिंदी क्षेत्र में इसेक्ट्रोनिक यंत्रों का बाजार भी फैल रहा है । इससे हिंदी
की अंतर्राष्ट्रीय भूमिका मजबूत हो रही है । ये ही बातें हैं, जिनको ध्यान में
रखकर वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कुछ दिन पहले कहा कि भारत को समझना
है, तो हिंदी सीखो । यह हिंदी के प्रति या भारत के प्रति बुश की उदारता नहीं है,
बल्कि अपनी नवउपनिवेशवादी योजना को कारगर बनाने के लिे हिंदी का उनके द्वारा
इस्तेमाल किया जाना है । लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि हिंदी हमारे चिंतन की, हमारे
सपनों की, हमारे प्रतिरोध की भाषा बनकर हमारी सास्कृतिक और राष्ट्रीय स्वायत्तता
की रक्षा की भाषा बनकर हमें ताकत देती है ।
अंतिम बात यह है कि आज भूमंडलीयकरण यानी अमेरिकीकरण के इस दौर में
एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता, संप्रभुता
और विकास के साधनों की रक्षा के संघर्ष में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है । इस
संघर्ष में भारत की भूमिका के साथ हिंदी भी अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करेगी, ऐसी
संभावना है । भारत सरकार में हावी नौकरशाही यद्यपि नौकरशाही यद्यपि भारत को और
हिंदी को भी अपनी वाजिब भूमिका अदा करने से रोकती है, उसकी भूमिका को कुंठित करती
है । इसके बावजूद जनता का और राष्ट्रीय जरूरतों के आग्रहों का दबाव नौकरशाही को
नियंत्रित करता है और हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय भूमिका को उजागर करता है ।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह बात स्पष्ट है कि देशी बोलियों एवं
भाषाओं, विदेशी अरबी-फारसी तथा संस्कृत के मूल तत्सम शब्द हिंदी में रचनाओं के
प्रभाव एवं प्रवाह में बाधक नहीं होते अपितु इनका विकास ही करते हैं, चूँकि ये सभी
शब्द एक ही भाषा-परिवार से आये हैं । यही कारण है कि हिंदी में उपरोक्त भाषाओं तथा
बोलियों के शब्दों का मिश्रण हमें अनुचित नहीं लगता । परन्तु अंग्रेजी के सन्दर्भ
में यह बात लागू नहीं होती क्योंकि यह तो एक विदेशी द्विप की भाषा है जो
संस्कृत-जनित भाषा नहीं है । हिंदी में इसके शब्दों की मिलावट हिंदी के स्तर को
गिराने का ही कार्य करेगी । यह भी सत्य है कि अंग्रेजी, हिंदी रचनाओं में प्रवाह
की स्थापना में सहयोग नहीं देती । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अंग्रेजी, हिंदी का
मात्र क्षय ही कर रही है । जब हमारे विद्वानों ने इस बात का विरोध किया तो
अंग्रेजी के कुछ राष्ट्रविरोधी समर्थको ने हिंदी अंग्रेजी के मिश्रण-हिंग्लिश को
युवाओं के मध्य एक मजेदार भाषा के रूप में स्थापित करने का दुष्चक्र चलाना
प्रारम्भ कर दिया, यद्यपि हमारे मत में हिंग्लिश में कुछ भी मजेदार नहीं है । आजकल
इस हिंग्लिश के माध्यम से युवाओं के मन से परिनिष्ठित हिंदी को मिटाने के लिए बड़े
पैमाने पर अभियान चलाए जा रहे हैं । मनोरंजन के माध्यम-सिनेमा, टीवी एवं विशेषकर
रेडियो आरजे हिंग्लिश को लगातार बढ़ावा देते हुए इसे युवा के बीच लोकप्रिय बनाने
में जुटे हुए हैं । साथ ही साथ एसएमएस संस्कृति हिंदी की सहस्त्रों वर्ष पुरानी
देवनागरी लिपि को समाप्त करने का माध्यम बन गयी है । जब हमें खाद्य पदार्थों से
लेकर कपड़ों तक किसी भी वस्तु में मिलावट बर्दाश्त नहीं तो फिर मातृभाषा में
मिलावट हम कैसे सह सकते हैं ? यद्यपि "भारत दुर्दशा" जैसे निबंध लिखकर इस देश को
जगाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व कुछ इस
प्रकार से बताया है ।-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल ।।
अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।।
प्रधान मुख्य आयकर आयुक्त का कार्यालय, बेंगलूरू
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