Tuesday, 22 November 2016

हिंदी को एक दिन : आखिर क्यों ?

हिंदी  को एक दिन : आखिर क्यों ?
(सुबोध कुमार सिंह)

हम सब हर वर्ष 14 सितंबर को देश में हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह मात्र एक दिन नहीं बल्कि यह है अपनी मातृभाषा को सम्मान दिलाने का एक मात्र दिन है। उस भाषा को सम्मान दिलाने का जिसे लगभग तीन चौथाई हिन्दुस्तान समझता है, जिस भाषा ने देश को स्वतंत्रता दिलाने में अहम भूमिका निभाई। उस हिंदी भाषा के नाम यह दिन समर्पित है जिस हिंदी ने हमें एक-दूसरे से जुड़ने का साधन प्रदान किया । आज देश में हिंदी के हजारों न्यूज चैनल और अखबार आते हैं लेकिन जब बात प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की होती है तो उनमें अव्वल दर्जे पर अंग्रेजी चैनलों को रखा जाता है। बच्चों को अंग्रेजी का विशेष ज्ञान दिलाने के लिए अंग्रेजी अखबारों को स्कूलों में बंटवाया जाता है लेकिन क्या आपने कभी हिंदी अखबारों को स्कूलों में बंटते हुए देखा है।

बात सिर्फ शैक्षिक संस्थानों तक सीमित नहीं है। जानकारों की नजर में हिंदी की बर्बादी में सबसे अहम रोल हमारी संसद का है। भारत आजाद हुआ तब हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाजें उठी लेकिन इसे यह दर्जा नहीं दिया गया बल्कि इसे मात्र राजभाषा बना दिया गया। राजभाषा अधिनियिम की धारा 3 [3] के तहत यह कहा गया कि सभी सरकारी दस्तावेज और निर्णय अंग्रेजी में लिखे जाएंगे और साथ ही उन्हें हिंदी में अनुवादित कर दिया जाएगा। जबकि होना यह चाहिए था कि सभी सरकारी आदेश और कानून हिंदी में ही लिखे जाने चाहिए थे और जरूरत होती तो उन्हें अंग्रेजी में बदला जाता। लेकिन 26 जनवरी, 1950 जिस दिन से संविधान लागू हुआ हिंदी भी कहने मात्र तो लागू हो गई हकीकत में उस दिन से लेकर आज तक 63 साल बीत जाने पर भी हिंदी अपना बजूद खोजने में असमर्थ रही है। 

सरकार को यह समझने की जरूरत है हिंदी भाषा सबको आपस में जोड़ने वाली भाषा है तथा इसका प्रयोग करना हमारा संवैधानिक एवं नैतिक दायित्व भी है। अगर आज हमने हिंदी को उपेक्षित करना शुरू किया तो कहीं एक दिन ऐसा ना हो कि इसका वजूद ही खत्म हो जाए। समाज में इस बदलाव की जरूरत सर्वप्रथम स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से होनी चाहिए। साथ ही देश की संसद को भी मात्र हिंदी पखवाड़े में मातृभाषा का सम्मान नहीं बल्कि हर दिन इसे ही व्यवहारिक और कार्यालय की भाषा बनानी चाहिए ।
जब एक बच्चा जन्म लेता है तो वह मां के पेट से ही बोली सीखकर नहीं आता। उसे भाषा का पहला ज्ञान अपने माता-पिता द्वारा बोले गए प्यार भरे शब्दों से ही होता है। भारत में अधिकतर बच्चे सर्वप्रथम हिंदी में ही अपनी मां के प्यार भरे बोलों को सुनते हैं। हिंदी हिन्दुस्तान की भाषा है । यह भाषा है हमारे सम्मान, स्वाभिमान और गर्व की तो इसे क्यां न आगे बढ़कर अपनाया जाए। अगर हम अभी भी न जागे तो एक दिन निश्चय ही विश्व की अनेक विलुप्त भाषाओं की श्रेणी में अपने आप को भी पाएंगें।
हिंदी हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोनी की एक मजबूत माला है। कभी गांधीजी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था तो इसी हिंदी की खड़ी बोली  को अमीर खुसरो ने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का माध्यम भी बनाया। लेकिन यह किसी दुर्भाग्य से कम नहीं कि जिस हिंदी को हजारों लेखकों ने अपनी कर्मभूमि बनाया, जिसे कई स्वतंत्रता सेनानियों ने भी देश की शान बताया उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि सिर्फ राजभाषा की ही उपाधि दी गई। कुछ तथाकथित राष्ट्रवादियों की वजह से हिंदी को आज उसका वह सम्मान नहीं मिल सका जिसकी उसे जरूरत थी।

जिस हिंदी को संविधान में सिर्फ राजभाषा का दर्जा प्राप्त है उसे कभी गांधी जी ने खुद राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी सन 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था कि “ हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए।” लेकिन आजादी के बाद न गांधी जी रहे न उनका सपना। सत्ता में बैठे और भाषा-जाति के नाम पर राजनीति करने वालों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया।

भारतीय पुनर्जागरण के समय भी श्रीराजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान नेताओं ने हिंदी की खड़ी बोली का महत्व समझते हुए इसका प्रसार किया और अपने अधिकतर कार्यों को इसी भाषा में पूरा किया। हिंदी के लिए पिछली सदी कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है लेकिन आज हिंदी को उसका हक दिलाने के लिए हमे फिर एक पुनर्जागरण की आवश्यकता महसूस होती है।
जहाँ हिन्दुस्तान नाम भी हिंदी के आधार पर पड़ा है फिर भी हम विदेशी भाषा के प्रभुत्व का नतीजा भारत वर्ष कई वर्षों से भोग रहे हैं। औपनिवेशिक शासन में यह भाषा हुकूमत करने वालों ने हथियार के तौर पर इस्तेमाल की जाती है। इससे भाषा के साथ ग्रंथि जुड़ गयी। श्यामल अंग्रेजों को भी भाषा को औजार बनाकर जनता जनार्दन पर अपने को हावी रखने का चस्का लग गया है। इसी कारण उन्होंने हर हथकंडा इस्तेमाल किया लेकिन आजादी के बाद भी शासन व्यवस्था में अंग्रेजी के दबदबे को कमजोर नहीं होने दिया। दूसरी ओर विदेशी भाषा ने सोच की भारतीय समाज की मौलिकता को नष्ट कर दिया। अंग्रेजी ने अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र गिरोहों के चश्मे से स्थितियों को देखने का आदी बनाकर हमारी स्थिति यह कर दी है कि हम अपने ही खिलाफ षड्यंत्र के सहयोगी हो रहे हैं।

हिंदी दिवस पर आज हिंदी का जमकर महिमा बखान किया जाता है। अंग्रेजी के मुकाबले उसके शब्द सामर्थ्य कम होने के आरोप थोपे जाते हैं। अन्य कई चीजों की सफाई दी गयी। यह एक परंपरागत अनुष्ठान है जो  14 सितंबर को संपन्न होने के साथ ही बेमानी हो जाता है लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के विरुद्ध इससे ज्यादा सार्थक कारण हैं। अंग्रेजी से विरासत में आईएएस सेवा को जो शासक मनोवृत्ति मिली है उसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि लोकतंत्र अपाहिज होकर इस संवर्ग के अधिकारियों की वजह से घिसट रहा है। वे समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझतेउनके अंदर कोई रचनात्मकता इस दुर्गुण ने नहीं रहने दी हैदीनहीन जनता और बुद्धिजीवीशिक्षककविसाहित्यकार व अन्य लोग जो समाज के लिये परिसंपत्ति का मूल्य रखते हैं उनके लिये उपेक्षणीय हैं। आईएएस अधिकारी अपनी सत्ता के समीकरणों के हिसाब से व्यवस्था को चुनौती देने में सक्षम व अन्य अराजकतत्वोंदलालों को भाव देते हैं। उनके शक्तिपात से प्रभावशाली होकर अवांछनीय तत्व लोकतंत्र में सत्ता की सीढ़ी आसानी से चढऩे में सफल हो रहे हैं। अगर यह सेवा भंग कर दी जाये और प्रशासनिक सेवा के माध्यम के बतौर सिर्फ राष्ट्रभाषा या मातृभाषा की सीमा तय कर दी जाये तो नतीजा देने वाली नौकरशाही अस्तित्व में आ जायेगी जो खुद की प्रतिष्ठा के लिये भी सचेत होगी और देश के लिये भी।
                                                         (सुबोध कुमार सिंह)
                                                        कनिष्ठ हिंदी अनुवादक,
                       प्रधान मुख्य आयकर आयुक्त का कार्यालय, बेंगलूरु



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